शनिवार, 12 नवंबर 2016

सोना बनाना सहज सम्भव है.

            सोना बनाने का रहस्य 


          यह सौभाग्य की बात है कि, आज आपको नेट के जरिए सोना बनाने का आसान रहस्य बताया जा रहा है. इसके आधार पर कोई भी व्यक्ति विभिन्न सामग्रियां जुटाकर, पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी हाथों से जितना चाहें शुद्ध सोने का निर्माण अपने घर में ही कर सकता है. 
          
          दुनिया में कुछ भी नामुमकिन नहीं है. नामुमकिन उनके लिए है जो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं. या जो बड़े-बड़े ख्वाब देखते रहते हैं तथा ख्याली पुलाव के बारे में सोंचते रहते है. किन्तु आज मैं स्वर्ण निर्माण की चर्चा भी कर रहा हूँ और बनाने की तकनीक भी समझा रहा हूँ. आप थोड़ा हैरान, थोड़ा उत्सुक जरुर हो सकते हैं परन्तु यह हैरान होने का विषय नहीं है. बस आप इसे पहले ध्यान से समझ लें .  
          
          आज भी कई ऐसे नाम गिनाए जा सकते हैं जो पूर्वकाल में स्वर्ण निर्माण के क्षेत्र में विख्यात रहे है.  इनके नाम क्रमसः इस प्रकार से है. प्रभु देवा जी, व्यलाचार्य जी, इन्द्रधुम जी, रत्न्घोष जी इत्यादि स्वर्ण विज्ञान के सिद्ध योगी रहे हैं.  अपने आप में ये पारद सिद्ध योगी माने जाते रहे हैं. प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट चर्चा है. किन्तु भारतीय एक नाम है नागार्जुन का, जो स्वर्ण विज्ञानी के रूप विख्यात रहे है.  
          
          आज भी भारत वर्ष के सुदूर प्रान्तों में. इसके जानकार योगी, साधक हो सकते हैं जो सोना बनाने का दुर्लभ ज्ञान रखते हैं. ऐसे ही नामों में अद्भुत और पवित्र एक नाम है, पूज्य श्री नारायण दत्त श्रीमाली जी . जो १३  जुलाई  सन् १९९८  को इच्छा मृत्यु प्राप्तकर सिधाश्रम प्रस्थान कर गये. किन्तु अपने पीछे अनेक दीपक रोशन कर  छोड़ गए हैं, जो जहाँ भी है समाज कल्याण करने में  सक्षम और निरंतर कार्यशील है. 
          
          जैसाकि विभिन्न विधियों से स्वर्ण निर्माण की चर्चा होती आई है तथा पूर्व समय में कई रसाचार्यों ने समाज के सामने सोने का निर्माण करके चकित कर दिया. ६ नवम्बर सन १९८३ ई० साप्ताहिक हिंदुस्तान के अनुसार  सन १९४२ ई० में पंजाब के कृष्णपाल शर्मा ने ऋषिकेश में मात्र ४५  मिनट में पारा से दो सौ तोला सोने का निर्माण करके सबको आश्चर्य में डाल दिए. उस समय वह सोना ७५ हजार रूपए में बिका, वह धनराशि दान कर दी गई. 
          
          उस समय वहां महात्मा गाँधी, उनके सचिव श्री महादेव देसाईं, तथा श्री युगल किशोर बिड़ला जी उपस्थित थे. इससे पहले २६ मई सन १९४० में भी कृष्णपाल शर्मा ने दिल्ली के बिड़ला हॉउस में पारे को शुद्ध  सोने में बदलकर दिखा दिया था. उस समय भी वहा विशिष्ट गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे. और आज भी इस घटना का उल्लेख बिडला मंदिर में लगे शिलालेख पर मिलता है. 
   
         नागार्जुन का नाम तो स्वर्ण विज्ञानी के रूप में खासा प्रसिद्ध रहा है. उन्हें तो पारा से सोना बनाने में महारत हासिल थी. उनके लिखे कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ मौजूद है. जिनका अध्ययन करके पारे के दवारा अपनी हाथों से सोना कोई भी बना सकता है. नागार्जुन एक अति विशिष्ट व्यक्तित्व रहे हैं, नागार्जुन के जीवन  की  संघर्ष कथा किसी अगले पोस्ट में जरुर दूंगा.    
    
         अब मैं स्वर्ण निर्माण के चर्चे पर आता हूँ जिसे सिख समझकर आप भी उत्साहपूर्वक अपनी हाथों से सोना बनाएं. यह विधि त्रिधातु पात्र विधि कही जाती है. इसके लिए तीन अलग अलग धातुओं को मिलाकर पहले एक कटोरानुमा बर्तन तैयार किया जाता है.  इस बर्तन को स्वर्ण पात्र भी कहते है. 

निर्माण विधि -
      
          अर्थात लोहा 500 ग्राम, पीतल 500 ग्राम, और कांसा 500 ग्राम, तीनों धातु शुद्ध हो, सही हो ध्यान रखें. तीनों धातुओं को अलग-अलग पिघलाएं तथा पिघल जाने पर उन्हें आपस में मिक्स करते हुए किसी कटोरे या कढाई का रूप दे दें. ध्यान रहे उस बर्तन में कहीं छेद न हो और मात्रा सही हो. ऐसा बरतन बनाने में दिक्कत हो तो किसी बनाने वाले से बनवा लें. बरतन बन जाने के बाद उसे रख लें और बाजार में किसी विश्वसनीय पंसारी की दुकान से 200 ग्राम गंधक, 200 ग्राम नीला थोथा (तुतिया),  200 ग्राम नमक और 200 ग्राम कुमकुम (रोली) तथा रससिंदूर खरीदें साथ ही विश्वसनीय स्थान से ही 100 ग्राम शुद्ध पारा और शहद खरीद लें. ध्यान रहे- गंधक को सभी जानते हैं . नीला थोथा जिसे तुतिया भी कहते हैं .यह नीले रंग में पूरी तरह जहर होता है . 
          
          अब सभी सामग्रियां इकट्ठी करके गंधक, नीला थोथा, नमक और रोली अलग अलग कूट-पीसकर आपस में मिलादें और एक किलो ताजे पानी में इसे घोल दें. इसके बाद चूल्हे या स्टोव पर आग जलाए और त्रिधातु बर्तन में गंधक, नीला थोथा, नमक और रोली वाले मिश्रण को डालकर धीमी आंच पर पकने दें. जब पानी उबलने लगे तो 100 ग्राम पारा को रससिंदूर में अच्छी तरह घोंटे. फिर उसकी गोली बनायें और उसके ऊपर शहद चिपोड़ दें. अब उसे खौलते पानी (सामग्रियों) के बीच धीरे से रखें. जब दो तिहाई भाग पानी जल जाए तो बीच में पक रहे गोले पर ध्यान दिए रहें जो हल्का-हल्का सुनहलापन होना शुरू होगा. जब वह पूरी तरह सुनहला दिखने लगे तब बर्तन को नीचे उतार लें. आपके परिश्रम की बदौलत शुद्ध सोने का निर्माण हो चुका होगा,  श्रद्धा पूर्वक उसका नमन करे.  

सावधानियां -

१- नीला थोथा शुद्ध रूप से जहर है, इसे छुने के बाद हर बार हाथ धो लिया करें. 
२- गंधक भी कुछ इसी प्रकार का पदार्थ होता है, छुने के बाद हाथ धोलें .
३- पारा अति चंचल द्रव्य होता है, जमीन पर उसे गिरने से बचाएं.
४- सामग्री पकाते समय आँखों को किसी विशेष चश्मे से ढका हुआ रखें.

          इस प्रकार सामग्री की शुद्धता और सावधानियों को ध्यान में रखकर पारद यानी पारा के द्वारा स्वर्ण बनाया जाता है. आप पूरे आत्मविश्वास के साथ सोने का निर्माण कर सकते हैं. हमारी मंगल कामना आपके साथ है. 

          भारत वर्ष का सौभाग्य है कि, यहाँ एक दो नहीं, स्वर्ण बनाने की अनेकों विधियाँ पूर्व संयोजित है. संतों और ऋषियों की कृपा ही है जो अनमोल थाती के रूप में इस देश को सौंप गए हैं तथा ऐसे दिव्य ज्ञान प्राप्त करके भी कोई गरीबी और निर्धनता का रोना रोए तो इसे महा दुर्भाग्य ही माना जाएगा.
          इस लेख के पाठकों को सलाह है,- प्रस्तुत स्वर्ण निर्माण विधि प्रमाणिक विधि है. स्वर्ण निर्माण में रूचि लेने वाले बंधुओं को निर्देश का पालन करते हुए प्रयोग करना चहिये. सामग्रियां शुद्ध व् सही  हो. निर्माण विधि और निर्माण समय भी महत्व रखता है. यदि पहली बार में सफलता न मिले तो कहीं न कहीं त्रुटी जरुर मानिये. आप दूसरी बार  प्रयास कीजिये, तीसरी बार कीजये. क्योंकि जो सच है उसे प्रकट होना ही है. विश्व विख्यात स्वर्ण विज्ञानी नागार्जुन १७ वर्ष की उम्र में ही घर परिवार के मोह बंधन से निकलकर स्वर्ण निर्माण शोध में निमग्न हो गए थे. उनके सामने सुविधाएँ भी कम थी और समस्ययाओं का ताँता होता था.उन्हें सफलता ७० साल की उम्र में प्राप्त हुई. अतः आत्मविश्वास भरा प्रयास व्यक्ति को सफल बनाता है. 

प्राचीन भारत और रसायन शास्त्र

रसायनशास्त्र का प्रारंभ वैदिक युग से माना गया है। प्राचीन ग्रंथों में रसायनशास्त्र के ‘रस’ का अर्थ होता था-पारद। रसायनशास्त्र के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के खनिजों का अध्ययन किया जाता था। 
वैदिक काल तक अनेक खनिजों की खोज हो चुकी थी तथा उनका व्यावहारिक प्रयोग भी होने लगा था।
 परंतु इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा काम नागार्जुन नामक बौद्ध विद्वान ने किया। 
उन्होंने एक नई खोज की जिसमें पारे के प्रयोग से तांबा इत्यादि धातुओं को सोने में बदला जा सकता था।
रसायन-धातु कर्म विज्ञान के प्रणेता – नागार्जुन .
सनातन कालीन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में रसायन एवं धातु कर्म विज्ञान के सन्दर्भ में नागार्जुन का नाम अमर है…
 ये महान गुणों के धनी रसायनविज्ञ इतने प्रतिभाशाली थे की इन्होने विभिन्न धातुओं को सोने (Gold) में बदलने की विधि का वर्णन किया था. एवं इसका सफलतापूर्वक प्रदर्शन भी किया था.
इनकी जन्म तिथि एवं जन्मस्थान के विषय में अलग-अलग मत हैं। 
एक मत के अनुसार इनका जन्म द्वितीय शताब्दी में हुआ था। 
अन्य मतानुसार नागार्जुन का जन्म सन् ९३१ में गुजरात में सोमनाथ के निकट दैहक नामक किले में हुआ था, 
नागार्जुन ने रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान पर बहुत शोध कार्य किया।
 रसायन शास्त्र पर इन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिनमें ‘रस रत्नाकर’ और ‘रसेन्द्र मंगल’ बहुत प्रसिद्ध हैं।
 इन्होंने अपनी चिकित्सकीय ‍सूझबूझ से अनेक असाध्य रोगों की औषधियाँ तैयार की। 
चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें ‘कक्षपुटतंत्र’, ‘आरोग्य मंजरी’, ‘योग सार’ और ‘योगाष्टक’ हैं।
नागार्जुन द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘रस रत्नाकार‘ दो रूपों में उपलब्ध है। 
ऐसा विश्वास किया जाता है कि इसी नाम के एक बौद्ध रसायनज्ञ ने इस पुस्तक का पुनरावलोकन किया। 
यह पुस्तक अपने में रसायन का तत्कालीन अथाह ज्ञान समेटे हुए हैं।
 नागार्जुन के रस रत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन (डिस्टीलेशन) विधि वर्णित है। 
नागार्जुन के रस रत्नाकर में रजत के धातुकर्म का वर्णन तो विस्मयकारी है।
 रस रत्नाकर में वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं।
रस रत्नाकर ग्रंथ में मुख्य रस माने गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है-
(१) महारस
(२) उपरस
(३) सामान्यरस
(४) रत्न
(५) धातु
(६) विष
(७) क्षार
(८) अम्ल
(९) लवण
(१०) भस्म।
महारस इतने है –
(१) अभ्रं
(२) वैक्रान्त
(३) भाषिक
(४) विमला
(५) शिलाजतु
(६) सास्यक
(७)चपला
(८) रसक
उपरस :-
(१) गंधक
(२) गैरिक
(३) काशिस
(४) सुवरि
(५) लालक
(६) मन: शिला
(७) अंजन
(८) कंकुष्ठ
सामान्य रस-
(१) कोयिला
(२) गौरीपाषाण
(३) नवसार
(४) वराटक
(५) अग्निजार
(६) लाजवर्त
(७) गिरि सिंदूर
(८) हिंगुल
(९) मुर्दाड श्रंगकम्‌
इसी प्रकार दस से अधिक विष हैं।
रस रत्नाकर अध्याय ९ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है।
 इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं-
(१) दोल यंत्र
(२) स्वेदनी यंत्र
(३) पाटन यंत्र
(४) अधस्पदन यंत्र
(५) ढेकी यंत्र
(६) बालुक यंत्र
(७) तिर्यक्‌ पाटन यंत्र
(८) विद्याधर यंत्र
(९) धूप यंत्र
(१०) कोष्ठि यंत्र
(११) कच्छप यंत्र
(१२) डमरू यंत्र।
प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। 
विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं।
अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है।
पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायुष्य के लिए उसका प्रयोग होता था। भारत में पारद आश्रित रसविद्या अपने पूर्ण विकसित रूप में स्त्री-पुरुष प्रतीकवाद से जुड़ी है। 
पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया और इन दोनों के हिंगुल के साथ जुड़ने पर जो द्रव्य उत्पन्न हुआ, उसे रससिन्दूर कहा गया, जो आयुष्य-वर्धक सार के रूप में माना गया।
पारे की रूपान्तरण प्रक्रिया-इन ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस-शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर, उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे। 
उसमें पारे को अठारह संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। 
इन प्रक्रियाओं में औषधि गुणयुक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है।
 रसवादी यह मानते हैं कि क्रमश: सत्रह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद पारे में रूपान्तरण (स्वर्ण या रजत के रूप में) की सभी शक्तियों का परीक्षण करना चाहिए। 
यदि परीक्षण में ठीक निकले तो उसको अठारहवीं शुद्धिकरण की प्रक्रिया में लगाना चाहिए। इसके द्वारा पारे में कायाकल्प की योग्यता आ जाती है।
नागार्जुन कहते हैं-
क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजित:।
करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्‌॥
सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा:।
लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम्‌॥ – (रसरत्नाकार-३-७-८९-१०)
अर्थात्‌ – धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है- सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा।
 इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है।
नागार्जुन के रस रत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन (डिस्टीलेशन) विधि, 
रजत के धातुकर्म का वर्णन तथा वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं।
इसके अतिरिक्त रसरत्नाकर में रस (पारे के योगिक) बनाने के प्रयोग दिए गये हैं।
 इसमें देश में धातुकर्म और कीमियागरी के स्तर का सर्वेक्षण भी दिया गया था। 
इस पुस्तक में चांदी, सोना, टिन और तांबे की कच्ची धातु निकालने और उसे शुद्ध करने के तरीके भी बताये गए हैं।
पारे से संजीवनी और अन्य पदार्थ बनाने के लिए नागार्जुन ने पशुओं और वनस्पति तत्वों और अम्ल और खनिजों का भी इस्तेमाल किया। हीरे, धातु और मोती घोलने के लिए उन्होंने वनस्पति से बने तेजाबों का सुझाव दिया। उसमें खट्टा दलिया, पौधे और फलों के रस से तेजाब (Acid) बनाने का वर्णन है।

स्वर्ण निर्माण की रहस्यमयी विद्या-रसतंत्र विद्या

विकास एस.खत्री
हमारे देश के आम लोगों की यही धारणा है कि आज तक जो भी नये अविष्कार या खोजें हुई हैं या हो रही हैं,
 वे सभी पश्चिमी देशों की देन है। इन नयी खोजों में भारतीयों का योगदान न के बराबर है, परन्तु यह सोचना गलत है।
 हमारे प्राचीन ग्रन्थों, वेद तथा पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि हमारा देश बहुत पहले से विज्ञान के क्षेत्र में आगे था। इसके अनेकों उदाहरण मिलते हैं। जैसे- चरक व सुश्रुत प्राचीन भारत के बहुत ही विख्यात चिकित्सक हुए। 
इन्होंने प्लास्टिक सर्जरी तक का विशद वर्णन अपनी पुस्तकों में किया है। 
यही नहीं चेचक के टीके का अविष्कार लगभग 415 वर्ष पहले भारत में ही हुआ था। 
चेचक के रोगी के फफोलों का रस कांच पर सुरक्षित रखा जाता फिर किसी को चेचक होने पर उसकी बांह के नीचे चीरा लगाकर यह रस डाल दिया जाता, जिससे रोगी ठीक हो जाता।
अणु के प्रपितामह डेमोक्रीट्स से भी पूर्व, भारतीय विचारक कणाद घोषणा कर चुके थे कि अणु ही ब्रह्माण्ड की मूल सत्ता है। जो आज पाश्चात्य वैज्ञानिकों द्वारा भी मान्य हो चुका है।
हालांकि चतुर्थ आयाम का पता सर्वप्रथम आइन्सटीन ने लगाया था, परन्तु चतुर्थ आयाम का अस्तित्व हमारे ऋषि मुनि वैज्ञानिक अत्यन्त प्राचीन काल से स्वीकार करते आये है। 
अन्र्तध्यान हो जाना वस्तुत: चतुर्थ आयाम में प्रवेश करना ही था।
हमारे प्राचीन ऋषि वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले महाप्रलय के बाद जो पृथ्वी बनी, उसकी आयु 1,67,12,21060 वर्ष है। पिछले महाप्रलय के बाद से 6 मन्वन्तर (30,67,20000 मानव वर्ष) बीत चुके हैं और सातवां इस समय चल रहा है। 
जिसका भी 28 वां महायुग (43,20000 मानव वर्ष) चल रहा है। 
इस महायुग के भी तीन युग-सत्य युग (17,28000 मानव वर्ष), त्रेता युग (12,66,000) मानव वर्ष) और द्वापर युग (4,32,000 मानव वर्ष) बीत चुके हैं। 
अब कलियुग (4,32,000 मानव वर्ष) का 5061 वां वर्ष चल रहा है। 
इस अवधि के मानव वर्षों को जोड़ा जाये तो पृथ्वी की आयु ज्ञात होती है, तकरीबन 2 अरब वर्ष। पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी पृथ्वी की आयु इतनी ही बताई है।
नगेन्द्रनाथ बसु ने विश्वकोष में बताया है कि सिंकदर के एक सेनापति ने 328 ई.पू.पंजाब में सर्वप्रथम कागज देखा,
 जो बंगाल तक प्रचलित था अर्थात कागज के आविष्कार का श्रेय भारत को ही जाता है न कि चीन को।
चश्मे के लैंस ईजाद करने का श्रेय पाश्चात्य वैज्ञानिक रोजर बेकन को दिया जाता है, परन्तु भारत में इस विज्ञान का विकास पहले ही हो चुका था। बाद में चीनियों ने शीशे के लैंस का प्रयोग भारत में सीखा। 
सन 1260 में लैंस का प्रयोग चीन ने तुर्की से हांसिल किया, जबकि तुर्की यह कला भारत से पहले ही सीख चुका था।
वैज्ञानिकता में देवनागरी लिपि का मुकाबला विश्व की कोई लिपि नहीं कर सकती। 
एक जर्मन वैज्ञानिक ने विश्व की मुख्य भाषाओं को कुछ अक्षरों में मिट्टी के प्रतिरुप बनाये जो भीतर से खोखले थे।
 उन्हें फूंकने पर देवनागरी अक्षरों के सिवाय किसी और लिपि के अक्षरों की प्रतिध्वनियां मूल अक्षरों की प्रतिध्वनि के समान नहीं पाई गई।
कहाकवि बिहारी ने अपने ग्रन्थ बिहारी सतसई में राधा की वंदना करते हुए कहा है कि 
जा तन की झांई पड़े, श्याम हरित दुति होई। 
अर्थात उनके कारण कृष्ण का सांवला रंग भी हरी आभा से युक्त हो जाता है।
 आज के वैज्ञानिक यह मानते हैं कि तन और मन शान्ति देने वाला रंग हरा ही है।
मैसूर विश्वविद्यालय की अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति अनुसंधान अकादमी ने महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित 
वैज्ञानिक शास्त्र का अंग्रेजी में अनुवाद किया तो वैज्ञानिक जगत स्तब्ध रह गया।
 इसमें वायुयान को अदृश्य करने, दुश्मनों के वायुयान में हो रही बातचीत को सुनने और 
उन्हें गिराने की यांत्रिक विधियां बतायी गई हैं।
 इसी प्रकार एक अन्य प्राचीन ग्रन्थ ‘समरांगण सूत्रधारÓ में विभिन्न वायुयानों के गुण अवगुण, गति, उड़ान-क्षमता और उतरने के तरीकों पर विस्तृत विवेचना मिलती है। 
इसमें ईधन के लिए पारे के चार सिलेंडर रखे जाते थे। रॉकेट के रुप में ऊपर उठाया जाता था। 
यह तेज गर्जना के साथ ऊपर उठता था।
समय की सूचना देने वाली घड़ी का जन्म ईसा के हजारों वर्ष पूर्व भारत में हुआ था। 
घड़ी के बीच में स्थित लोहे की पत्ती छायाओं के आधार पर समय बताती है. जयपुर और दिल्ली के जंतर-मंतर में यह धूप घड़ी आज भी देखी जा सकती है।
ज्योतिष शास्त्र के गणित का मूलाधार उज्जैन है, क्योंकि उज्जैन को भूमध्य रेखा पर आधारित मानकर गणना का माध्यम स्वीकार किया गया है। भारत के ठीक मध्य में होने के कारण उज्जैन को भारत का हृदय माना जाता है
 और यह पुराण काल में भारत का ग्रीनविच था। 
उज्जैन के सिवाय विश्व में और कहीं भी (किसी भी अक्षांश पर) सूर्य मस्तक पर नहीं आता। इस भौगोलिक विशेषता के कारण ही उज्जैन को ठीक काल ज्ञान स्थल माना जाता है।
पारद के सम्बन्ध में जो भी अन्वेषण हमारे यहां हुए हैं, उनसे पता चलता है कि इस वस्तु का महत्व प्राचीन में देह सिद्धि की अपेक्षा धातु सिद्धि के संबंध में अधिक प्रयोग हुआ है। हल्की धातुओं से पारद के द्वारा सोना बनाने की कला हमारे यहां बहुत प्राचीन काल से रही है। इस विद्या में दक्ष अनेक सिद्ध हमारे यहां हुए हैं। इन सिद्धों में नागार्जुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। यह नागार्जुन सन 172 के करीब राजा शालिवाहन के समय में हुए थे। उन्होंने ‘रस रत्नाकरÓ तथा ‘रसेन्द्र मंगलÓ नामक दो ग्रन्थ लिखे हैं। रसेन्द्र मंगल के साथ कक्ष पुट नामक एक छोटा सा ग्रन्थ और जुड़ा हुआ है। इस ग्रन्थ में ‘रसायन विद्याÓ या कीमियागरी का वर्णन प्रश्नोत्तर के रुप में किया गया है। इस ग्रन्थ में उन्होंने गुरू वशिष्ठ तथा माण्डव्य का नाम दिया है। इससे स्पष्ट होता है कि उनके पहले भी इस परम्परा में वशिष्ठ तथा माण्डव्य हुए थे। इन नागार्जुन के पश्चात सन ८०० में दूसरे नागार्जुन तथा शवरपाद इत्यादि अनेक सिद्ध हुए हैं जिनके लिखे हुए कई ग्रन्थों का अनुवाद तिब्बती भाषा में मिलता है।
हल्की धातुओं से रासायनिक प्रक्रियाओं के द्वारा स्वर्ण या सोने के समान मूल्यवान धातुओं के निर्माण करने की विद्या को ‘कीमियागरीÓ कहते हैं। भारतवर्ष में इस विद्या को रसायन विद्या या रसतंत्र विद्या कहते हैं। रस तंत्र विद्या का क्षेत्र कीमियागरी से कहीं अधिक विस्तृत है। इस विद्या के अन्तर्गत स्वर्ण सिद्धि के साथ-साथ देह सिद्धि का भी समावेश होता है। अर्थात जिस प्रकार रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा हल्की धातुओं को ऊँची धातुओं में बदला जाता है। उसी प्रकार जर्जरित शरीर को इस विद्या के द्वारा पुन: यौवन से अभिभूत भी किया जा सकता है।
हमारे प्राचीन ग्रन्थों से पता चलता है कि जिस प्रकार वेदों के आदि प्रवर्तक ब्रह्मा तथा आयुर्वेद के आदि प्रवर्तक, अश्विनी कुमार है, उसी प्रकार रस तंत्र और रसायन विद्या के आदि प्रवर्तक भगवान शिव है। ऐसा कहा जाता है कि पारद के द्वारा देह की सिद्धि तथा धातु का ज्ञान सबसे पहले महादेव पार्वती को बताया था। इससे पता चलता है कि जिस प्रकार आयुर्वेद इस देश का प्राचीन विज्ञान है, उसी प्रकार रस तंत्र भी हमारे यहां का बहुत प्राचीन विज्ञान है। इस रस तंत्र की सारी बुनियाद पारद के ऊपर रखी हुई है। पारद के ऊपर जितने अन्वेषण हमारे देश के अन्दर हुए हैं। उतने सारे संसार के किसी अन्य देश में नहीं हुए। पारद को अष्टादश संस्कारों से युक्त करना, उसको विभूक्षित करके स्वर्ण को पचाने के योग्य बनाना, उसकी गोली बनाकर उक्त गोली के द्वारा स्वर्ण की सिद्धि करना आदि अनेकों प्रयोग पारद के संबंध में हमारे यहां हुए हैं।
वानस्पतिक प्रयोग
पारद की गोली बनाने तथा तांबे को सोने के रूप में परिवर्तित कर देने के लिए भारतवर्ष में कई वनस्पतियों पर भी प्रयोग हुए हैं तथा ऐसी 64 दिव्य औषधियों का आयुर्वेद में उल्लेख किया गया है। जो इस कार्य में सफल हुई है। इन वनस्पतियों में रुद्रवन्ती, कांगक्षेत्री, तेलियाकन्द, पलाश, तिलका, उतरण, काली चित्रक, नागार्जुनीय, इत्यादि वनस्पतियों के नाम उल्लेखनीय हैं। इन सब बातों से पता चलता है कि भारतवर्ष में पारद के द्वारा स्वर्ण सिद्धि तथा देह के संबंध में अनेक प्रकार के अन्वेषण हुए हैं। मगर स्वर्णसिद्धि या कीमियागरी के संबंध में जो ज्ञान यहां उपार्जित हुआ, वह गुरू शिष्य परम्परा में ही दिए जाने के कारण लुप्तप्राय हो गया। अगर कहीं कुछ है भी तो वह बहुत दबा-छिपा हुआ है। उसके संबंध में बिना विश्वस्त सूत्रों के कुछ कह पाना संभव नहीं। मगर देह सिद्धि के संबंध में पारद का ज्ञान शास्त्र परम्परा होने की वजह से आंशिक रुप से अभी भी हमारे यहां विद्यमान है। यद्यपि उसके अष्टादश संस्कार तथा उसको विभूक्षित करने की पद्धति का ज्ञान हमारे यहां से करीब-करीब लुप्त हो गया है फिर भी उसका जितना ज्ञान अभी तक हमारे यहां सुरक्षित है, उसके लिए हम कह सकते हैं कि वह आज भी सर्वोत्कृष्ट है।
मध्यकाल में सम्राट जहांगीर के समय में अबूबकर नामक एक मुसलमान कीमियागर का नाम भी पाया जाता है। अबूबकर ने भी फारसी तथा अरबी में इस विषय पर कुछ रचनायें की थीं। आधुनिक समय में कीमियागरी की जानकारी के संबंध में बनारस के वैद्य स्व. कृष्णपाल शास्त्री का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय माना जाता है।
जिसके संबंध में बनारस विश्वविद्यालय के विश्वनाथ मंदिर में एक शिलालेख भी लगा हुआ है। वह शिलालेख इस प्रकार है।
सिद्धे रसे करिष्यामि, निर्दारिद्रयमय जगत्
जिन्होंने प्राचीन रसायन शाखा के अनेक गुप्त रहस्यों को प्रत्यक्ष करते हुए कहा था कि पारद के द्वारा स्वर्ण बनाने की रसायन विद्या जानने पर कोई भी मनुष्य दरिद्र नहीं रह सकेगा।
प्राचीन मिस्र में कीमियागरी
प्राचीन मिस्र के अन्तर्गत भी कीमियागरी के संबंध में काफी अनुसंधान हुए। कीमिया की उत्पत्ति के संबंध में वहां पर जो दन्तकथाएं प्रचलित हैं उनसे मालूम होता है कि मिस्र के देवता हरमस ने मिस्र में इस कला का प्रचार किया तथा स्वर्ण के दूतों ने उन स्त्रियों को इस का कला ज्ञान दिया, जिनसे उन्होंने विवाह कर लिये।
प्राचीन यूनान में कीमियागरी
यूनान के अन्तर्गत भी कीमियागरी के संबंध में कई अन्वेषण हुए तथा वहां से इसका प्रचार अरब देशों तथा यूरोप में हुआ। प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु तथा अन्य लोगों ने कीमियागरी के ऊपर कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था। ये सिद्धान्त द्रव्य, आकार तथा स्प्रिट पर निर्भर थे। अरस्तु के मतानुसार जब लोहे से कीट (मोरचा) बनता है तब इस क्रिया में जो अंश बदलता है, वह आकार है तथा जो अंश अपरिवर्तित रह जाता है वह पदार्थ है। अंतिम विश्लेषण पर केवल एक ही पदार्थ मिलता है, जो अनेक आकार धारण करता है। किसी भी वस्तु में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। केवल आकार तथा रूप बदल सकता है। किसी भी वस्तु को अति सरल पदार्थ में परिवर्तित कर फिर उसे दूसरा आकार दिया जा सकता है। इस विषय में तांबा तथा स्वर्ण में अंतर केवल आकार का है। यदि तांबे को गंधक के साथ गरम करें या सल्फाईट के विलयन से क्रिया करें तो तांबे का धात्विक आकार नष्ट हो जाता है और उसके बदले अन्य रासायनिक क्रियाओं के द्वारा उसे स्वर्ण का आकार दिया जा सकता है।
विदेशों के अन्तर्गत कीमियागरी के संबंध में अरस्तु, जोसीमस, डिमाक्रेटस, जाबिर तथा चीनी वी-पो-यांग इत्यादि कीमियागरों के नाम विशेष रुप से प्रसिद्ध हैं। आधुनिक विज्ञान पिछली शताब्दी तक धातुओं के रासायनिक तत्वों का परिवर्तन के द्वारा दूसरे तत्वों के रुप में बदल देने की, या तांबे को स्वर्ण के रुप में बदल देने की कल्पना को बिल्कुल असंभव तथा हास्यास्पद समझता था। पर इस शताब्दी में इस परिवर्तन का सिद्धान्त रुप में वह संभव मानने लग गया है। यद्यपि इस क्रिया को व्यवहारिक रुप देने के लिए अपार शक्ति तथा उष्णता की आवश्यकता को अनिवार्य समझता है।

स्वर्ण निर्माण की रहस्यमयी विद्या-रसतंत्र विद्या

विकास एस.खत्री
हमारे देश के आम लोगों की यही धारणा है कि आज तक जो भी नये अविष्कार या खोजें हुई हैं या हो रही हैं, वे सभी पश्चिमी देशों की देन है। इन नयी खोजों में भारतीयों का योगदान न के बराबर है, परन्तु यह सोचना गलत है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों, वेद तथा पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि हमारा देश बहुत पहले से विज्ञान के क्षेत्र में आगे था। इसके अनेकों उदाहरण मिलते हैं। जैसे- चरक व सुश्रुत प्राचीन भारत के बहुत ही विख्यात चिकित्सक हुए। इन्होंने प्लास्टिक सर्जरी तक का विशद वर्णन अपनी पुस्तकों में किया है। यही नहीं चेचक के टीके का अविष्कार लगभग 415 वर्ष पहले भारत में ही हुआ था। चेचक के रोगी के फफोलों का रस कांच पर सुरक्षित रखा जाता फिर किसी को चेचक होने पर उसकी बांह के नीचे चीरा लगाकर यह रस डाल दिया जाता, जिससे रोगी ठीक हो जाता।
अणु के प्रपितामह डेमोक्रीट्स से भी पूर्व, भारतीय विचारक कणाद घोषणा कर चुके थे कि अणु ही ब्रह्माण्ड की मूल सत्ता है। जो आज पाश्चात्य वैज्ञानिकों द्वारा भी मान्य हो चुका है। हालांकि चतुर्थ आयाम का पता सर्वप्रथम आइन्सटीन ने लगाया था, परन्तु चतुर्थ आयाम का अस्तित्व हमारे ऋषि मुनि वैज्ञानिक अत्यन्त प्राचीन काल से स्वीकार करते आये है। अन्र्तध्यान हो जाना वस्तुत: चतुर्थ आयाम में प्रवेश करना ही था।
हमारे प्राचीन ऋषि वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले महाप्रलय के बाद जो पृथ्वी बनी, उसकी आयु 1,67,12,21060 वर्ष है। पिछले महाप्रलय के बाद से 6 मन्वन्तर (30,67,20000 मानव वर्ष) बीत चुके हैं और सातवां इस समय चल रहा है। जिसका भी 28 वां महायुग (43,20000 मानव वर्ष) चल रहा है। इस महायुग के भी तीन युग-सत्य युग (17,28000 मानव वर्ष), त्रेता युग (12,66,000) मानव वर्ष) और द्वापर युग (4,32,000 मानव वर्ष) बीत चुके हैं। अब कलियुग (4,32,000 मानव वर्ष) का 5061 वां वर्ष चल रहा है। इस अवधि के मानव वर्षों को जोड़ा जाये तो पृथ्वी की आयु ज्ञात होती है, तकरीबन 2 अरब वर्ष। पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी पृथ्वी की आयु इतनी ही बताई है।
नगेन्द्रनाथ बसु ने विश्वकोष में बताया है कि सिंकदर के एक सेनापति ने 328 ई.पू.पंजाब में सर्वप्रथम कागज देखा, जो बंगाल तक प्रचलित था अर्थात कागज के आविष्कार का श्रेय भारत को ही जाता है न कि चीन को।
चश्मे के लैंस ईजाद करने का श्रेय पाश्चात्य वैज्ञानिक रोजर बेकन को दिया जाता है, परन्तु भारत में इस विज्ञान का विकास पहले ही हो चुका था। बाद में चीनियों ने शीशे के लैंस का प्रयोग भारत में सीखा। सन 1260 में लैंस का प्रयोग चीन ने तुर्की से हांसिल किया, जबकि तुर्की यह कला भारत से पहले ही सीख चुका था।
वैज्ञानिकता में देवनागरी लिपि का मुकाबला विश्व की कोई लिपि नहीं कर सकती। एक जर्मन वैज्ञानिक ने विश्व की मुख्य भाषाओं को कुछ अक्षरों में मिट्टी के प्रतिरुप बनाये जो भीतर से खोखले थे। उन्हें फूंकने पर देवनागरी अक्षरों के सिवाय किसी और लिपि के अक्षरों की प्रतिध्वनियां मूल अक्षरों की प्रतिध्वनि के समान नहीं पाई गई।
कहाकवि बिहारी ने अपने ग्रन्थ बिहारी सतसई में राधा की वंदना करते हुए कहा है कि जा तन की झांई पड़े, श्याम हरित दुति होई। अर्थात उनके कारण कृष्ण का सांवला रंग भी हरी आभा से युक्त हो जाता है। आज के वैज्ञानिक यह मानते हैं कि तन और मन शान्ति देने वाला रंग हरा ही है।
मैसूर विश्वविद्यालय की अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति अनुसंधान अकादमी ने महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित वैज्ञानिक शास्त्र का अंग्रेजी में अनुवाद किया तो वैज्ञानिक जगत स्तब्ध रह गया। इसमें वायुयान को अदृश्य करने, दुश्मनों के वायुयान में हो रही बातचीत को सुनने और उन्हें गिराने की यांत्रिक विधियां बतायी गई हैं। इसी प्रकार एक अन्य प्राचीन ग्रन्थ ‘समरांगण सूत्रधारÓ में विभिन्न वायुयानों के गुण अवगुण, गति, उड़ान-क्षमता और उतरने के तरीकों पर विस्तृत विवेचना मिलती है। इसमें ईधन के लिए पारे के चार सिलेंडर रखे जाते थे। रॉकेट के रुप में ऊपर उठाया जाता था। यह तेज गर्जना के साथ ऊपर उठता था।
समय की सूचना देने वाली घड़ी का जन्म ईसा के हजारों वर्ष पूर्व भारत में हुआ था। घड़ी के बीच में स्थित लोहे की पत्ती छायाओं के आधार पर समय बताती है. जयपुर और दिल्ली के जंतर-मंतर में यह धूप घड़ी आज भी देखी जा सकती है।
ज्योतिष शास्त्र के गणित का मूलाधार उज्जैन है, क्योंकि उज्जैन को भूमध्य रेखा पर आधारित मानकर गणना का माध्यम स्वीकार किया गया है। भारत के ठीक मध्य में होने के कारण उज्जैन को भारत का हृदय माना जाता है और यह पुराण काल में भारत का ग्रीनविच था। उज्जैन के सिवाय विश्व में और कहीं भी (किसी भी अक्षांश पर) सूर्य मस्तक पर नहीं आता। इस भौगोलिक विशेषता के कारण ही उज्जैन को ठीक काल ज्ञान स्थल माना जाता है।
पारद के सम्बन्ध में जो भी अन्वेषण हमारे यहां हुए हैं, उनसे पता चलता है कि इस वस्तु का महत्व प्राचीन में देह सिद्धि की अपेक्षा धातु सिद्धि के संबंध में अधिक प्रयोग हुआ है। हल्की धातुओं से पारद के द्वारा सोना बनाने की कला हमारे यहां बहुत प्राचीन काल से रही है। इस विद्या में दक्ष अनेक सिद्ध हमारे यहां हुए हैं। इन सिद्धों में नागार्जुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। यह नागार्जुन सन 172 के करीब राजा शालिवाहन के समय में हुए थे। उन्होंने ‘रस रत्नाकरÓ तथा ‘रसेन्द्र मंगलÓ नामक दो ग्रन्थ लिखे हैं। रसेन्द्र मंगल के साथ कक्ष पुट नामक एक छोटा सा ग्रन्थ और जुड़ा हुआ है। इस ग्रन्थ में ‘रसायन विद्याÓ या कीमियागरी का वर्णन प्रश्नोत्तर के रुप में किया गया है। इस ग्रन्थ में उन्होंने गुरू वशिष्ठ तथा माण्डव्य का नाम दिया है। इससे स्पष्ट होता है कि उनके पहले भी इस परम्परा में वशिष्ठ तथा माण्डव्य हुए थे। इन नागार्जुन के पश्चात सन ८०० में दूसरे नागार्जुन तथा शवरपाद इत्यादि अनेक सिद्ध हुए हैं जिनके लिखे हुए कई ग्रन्थों का अनुवाद तिब्बती भाषा में मिलता है।
हल्की धातुओं से रासायनिक प्रक्रियाओं के द्वारा स्वर्ण या सोने के समान मूल्यवान धातुओं के निर्माण करने की विद्या को ‘कीमियागरीÓ कहते हैं। भारतवर्ष में इस विद्या को रसायन विद्या या रसतंत्र विद्या कहते हैं। रस तंत्र विद्या का क्षेत्र कीमियागरी से कहीं अधिक विस्तृत है। इस विद्या के अन्तर्गत स्वर्ण सिद्धि के साथ-साथ देह सिद्धि का भी समावेश होता है। अर्थात जिस प्रकार रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा हल्की धातुओं को ऊँची धातुओं में बदला जाता है। उसी प्रकार जर्जरित शरीर को इस विद्या के द्वारा पुन: यौवन से अभिभूत भी किया जा सकता है।
हमारे प्राचीन ग्रन्थों से पता चलता है कि जिस प्रकार वेदों के आदि प्रवर्तक ब्रह्मा तथा आयुर्वेद के आदि प्रवर्तक, अश्विनी कुमार है, उसी प्रकार रस तंत्र और रसायन विद्या के आदि प्रवर्तक भगवान शिव है। ऐसा कहा जाता है कि पारद के द्वारा देह की सिद्धि तथा धातु का ज्ञान सबसे पहले महादेव पार्वती को बताया था। इससे पता चलता है कि जिस प्रकार आयुर्वेद इस देश का प्राचीन विज्ञान है, उसी प्रकार रस तंत्र भी हमारे यहां का बहुत प्राचीन विज्ञान है। इस रस तंत्र की सारी बुनियाद पारद के ऊपर रखी हुई है। पारद के ऊपर जितने अन्वेषण हमारे देश के अन्दर हुए हैं। उतने सारे संसार के किसी अन्य देश में नहीं हुए। पारद को अष्टादश संस्कारों से युक्त करना, उसको विभूक्षित करके स्वर्ण को पचाने के योग्य बनाना, उसकी गोली बनाकर उक्त गोली के द्वारा स्वर्ण की सिद्धि करना आदि अनेकों प्रयोग पारद के संबंध में हमारे यहां हुए हैं।
वानस्पतिक प्रयोग
पारद की गोली बनाने तथा तांबे को सोने के रूप में परिवर्तित कर देने के लिए भारतवर्ष में कई वनस्पतियों पर भी प्रयोग हुए हैं तथा ऐसी 64 दिव्य औषधियों का आयुर्वेद में उल्लेख किया गया है। जो इस कार्य में सफल हुई है। इन वनस्पतियों में रुद्रवन्ती, कांगक्षेत्री, तेलियाकन्द, पलाश, तिलका, उतरण, काली चित्रक, नागार्जुनीय, इत्यादि वनस्पतियों के नाम उल्लेखनीय हैं। इन सब बातों से पता चलता है कि भारतवर्ष में पारद के द्वारा स्वर्ण सिद्धि तथा देह के संबंध में अनेक प्रकार के अन्वेषण हुए हैं। मगर स्वर्णसिद्धि या कीमियागरी के संबंध में जो ज्ञान यहां उपार्जित हुआ, वह गुरू शिष्य परम्परा में ही दिए जाने के कारण लुप्तप्राय हो गया। अगर कहीं कुछ है भी तो वह बहुत दबा-छिपा हुआ है। उसके संबंध में बिना विश्वस्त सूत्रों के कुछ कह पाना संभव नहीं। मगर देह सिद्धि के संबंध में पारद का ज्ञान शास्त्र परम्परा होने की वजह से आंशिक रुप से अभी भी हमारे यहां विद्यमान है। यद्यपि उसके अष्टादश संस्कार तथा उसको विभूक्षित करने की पद्धति का ज्ञान हमारे यहां से करीब-करीब लुप्त हो गया है फिर भी उसका जितना ज्ञान अभी तक हमारे यहां सुरक्षित है, उसके लिए हम कह सकते हैं कि वह आज भी सर्वोत्कृष्ट है।
मध्यकाल में सम्राट जहांगीर के समय में अबूबकर नामक एक मुसलमान कीमियागर का नाम भी पाया जाता है। अबूबकर ने भी फारसी तथा अरबी में इस विषय पर कुछ रचनायें की थीं। आधुनिक समय में कीमियागरी की जानकारी के संबंध में बनारस के वैद्य स्व. कृष्णपाल शास्त्री का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय माना जाता है।
जिसके संबंध में बनारस विश्वविद्यालय के विश्वनाथ मंदिर में एक शिलालेख भी लगा हुआ है। वह शिलालेख इस प्रकार है।
सिद्धे रसे करिष्यामि, निर्दारिद्रयमय जगत्
जिन्होंने प्राचीन रसायन शाखा के अनेक गुप्त रहस्यों को प्रत्यक्ष करते हुए कहा था कि पारद के द्वारा स्वर्ण बनाने की रसायन विद्या जानने पर कोई भी मनुष्य दरिद्र नहीं रह सकेगा।
प्राचीन मिस्र में कीमियागरी
प्राचीन मिस्र के अन्तर्गत भी कीमियागरी के संबंध में काफी अनुसंधान हुए। कीमिया की उत्पत्ति के संबंध में वहां पर जो दन्तकथाएं प्रचलित हैं उनसे मालूम होता है कि मिस्र के देवता हरमस ने मिस्र में इस कला का प्रचार किया तथा स्वर्ण के दूतों ने उन स्त्रियों को इस का कला ज्ञान दिया, जिनसे उन्होंने विवाह कर लिये।
प्राचीन यूनान में कीमियागरी
यूनान के अन्तर्गत भी कीमियागरी के संबंध में कई अन्वेषण हुए तथा वहां से इसका प्रचार अरब देशों तथा यूरोप में हुआ। प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु तथा अन्य लोगों ने कीमियागरी के ऊपर कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था। ये सिद्धान्त द्रव्य, आकार तथा स्प्रिट पर निर्भर थे। अरस्तु के मतानुसार जब लोहे से कीट (मोरचा) बनता है तब इस क्रिया में जो अंश बदलता है, वह आकार है तथा जो अंश अपरिवर्तित रह जाता है वह पदार्थ है। अंतिम विश्लेषण पर केवल एक ही पदार्थ मिलता है, जो अनेक आकार धारण करता है। किसी भी वस्तु में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। केवल आकार तथा रूप बदल सकता है। किसी भी वस्तु को अति सरल पदार्थ में परिवर्तित कर फिर उसे दूसरा आकार दिया जा सकता है। इस विषय में तांबा तथा स्वर्ण में अंतर केवल आकार का है। यदि तांबे को गंधक के साथ गरम करें या सल्फाईट के विलयन से क्रिया करें तो तांबे का धात्विक आकार नष्ट हो जाता है और उसके बदले अन्य रासायनिक क्रियाओं के द्वारा उसे स्वर्ण का आकार दिया जा सकता है।
विदेशों के अन्तर्गत कीमियागरी के संबंध में अरस्तु, जोसीमस, डिमाक्रेटस, जाबिर तथा चीनी वी-पो-यांग इत्यादि कीमियागरों के नाम विशेष रुप से प्रसिद्ध हैं। आधुनिक विज्ञान पिछली शताब्दी तक धातुओं के रासायनिक तत्वों का परिवर्तन के द्वारा दूसरे तत्वों के रुप में बदल देने की, या तांबे को स्वर्ण के रुप में बदल देने की कल्पना को बिल्कुल असंभव तथा हास्यास्पद समझता था। पर इस शताब्दी में इस परिवर्तन का सिद्धान्त रुप में वह संभव मानने लग गया है। यद्यपि इस क्रिया को व्यवहारिक रुप देने के लिए अपार शक्ति तथा उष्णता की आवश्यकता को अनिवार्य समझता है।
प्राचीन भारत का महान् वैज्ञानिक-सिद्ध नागार्जुन

पतंजलि योग दर्शन में बतलाया गया है कि योग कि दिव्य विभूतियों को प्राप्त करने के कई मार्ग हैं। 
जिस प्रकार षट्चक्रों का बेध करने से, पंचकोशों की साधना करके चेतना के उच्च स्तर पर आरुढ होने से ज्ञानयोग का अभ्यास करके अपने को परमात्मा-स्वरूप अनुभव कर लेने से 
मनुष्य योग की चमत्कारी सिद्धियों का स्वामी बन सकता है, 
उसी प्रकार शक्तिशाली जड़ी-बूटियों और औषधियों का प्रयोग करके भी 
इस कार्य में सफलता प्राप्त की जा सकती है।
भारत के “प्राचीन रस वैद्यों ने पारद के सम्बन्ध में बड़ी खोजबीन की थी।

जिस प्रकार आजकल के वैज्ञानिकों ने ‘यूरेनियम’ धातु के प्रयोग से उस ‘अणु शक्ति’ को प्राप्त कर लिया है, जिससे आप चाहे तो संसार की प्रलय कर दें और चाहे इस पृथ्वी को सुवर्ण मंडित बनाकर 
मनुष्यों को देवताओं के समान अजर-अमर बना दें, 
उसी प्रकार प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों ने भी पारद के ऊपर प्रयोग करके ऐसी विधियाँ निकाली थीं, 
जिससे ताँबे का सोना बनाना तो संभव था ही साथ ही मनुष्य अपने भौतिक शरीर को पूर्णतः नहीं तो 
अधिकाँश में अमर भी बना सकता था। 
“सत्य हरिश्चन्द्र” नाटक में तंत्र-विद्या के साधक कापालिक ने महाराज हरिश्चन्द्र को “पारद गुटिका” का प्रयोग करने की सम्मति देते हुये कहा था -
याही के पराभव सी, अमर देव सम होय।

सिद्ध नागार्जुन भारत वर्ष का इसी श्रेणी का एक महान वैज्ञानिक था। 
वैसे वह सन् 1055 में सौराष्ट्रार्न्तगत “ढाक” नामक समृद्धिशाली नगर का अधिपति था, 
पर उसकी रुचि राज्य-शासन की अपेक्षा ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन और खोज की तरफ विशेष रूप से की थी। उसने संसार की कायापलट कर देने के लिए “अमृत” ओर “पारस” की खोज करने का निश्चय किया 
और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक बड़ी प्रयोगशाला बनाकर 
जड़ी-बूटियों द्वारा पारद-सम्बन्धी परीक्षण आरम्भ किये।
साथ ही देश के विख्यात “रस वैज्ञानिकों” और साधकों को बुलाकर उनका सहयोग भी इस कार्य में प्राप्त किया। अपनी आँतरिक लगन और कठोर साधना के कारण उसे शीघ्र ही आश्चर्यजनक सफलता मिली 
और किसी घटिया धातु को सोने के रूप में बदल देना उसके लिए साधारण सी बात हो गई। 
मानवीय देह को अमर बनाने के प्रयत्न में भी वह बहुत कुछ सफल हुआ।
 उसकी इन महान् वैज्ञानिक खोजों का प्रमाण उसके बनाये “रसोद्वार तन्त्र” नामक ग्रन्थ में मिलता है,
जिसे आज भी आयुर्वेद जगत् में अद्वितीय माना जाता है। 
पर परिस्थितियों वश नागार्जुन को अपने कार्य को पूर्ण करने का अवसर नहीं मिल सका और
 दस वर्ष तक ढाँक का राज्याधिकारी रहने के बाद ही उसका अंत हो गया।

ऊपर कहा जा चुका है कि नागार्जुन ने अपनी समस्त शक्ति और समय ‘अमृत’ की खोज में लगा दिया था। इस कारण वह राज्य-कार्य की उपेक्षा करने लगा और देश में अव्यवस्था उत्पन्न होने लगी। 
यह देखकर राज्य के हितैषी मन्त्रियों ने सामूहिक रूप से उसके पास जाकर प्रार्थना की कि उसकी विज्ञान रुचि के कारण राज्य की क्षति हो रही है, प्रादेशिक सामन्त स्वेच्छाचारी बनकर कर देना बन्द कर रहे हैं,
 उपद्रवी तत्त्व बढ़ने लगे हैं और विदेशियों के आक्रमण का पूरा भय उत्पन्न हो गया है।

मन्त्रियों की बात सुनकर नागार्जुन ने कहा - “मित्रो! तुम्हारा यह कहना ठीक है कि मैं अमृत की खोज में लगा हुआ हूँ और इससे राज्य कार्य की उपेक्षा हो रही है पर जिन दो विपत्तियों का भय मृत्यु के भय को हटाने में समर्थ हो जाऊँगा। 
भगवान धन्वन्तरि की कृपा से अमर बनाने वाली समस्त औषधियाँ मिल गई हैं और अब केवल उचित मात्रा में विधिपूर्वक उनका योग करना ही शेष रह गया है। 
जो कार्य प्राचीन समय में अश्विनी कुमार लंकेश्वर रावण और आयुर्वेद के जनक चरकाचार्य से पूर्ण नहीं हो सका था, उसकी विधि मेरी समझ में आ गई है। 
भगवान ने चाहा तो संसार में शीघ्र ही ऐसे युग का आविर्भाव होगा जब कि दरिद्रता और मृत्यु के भय से लोग मुक्त हो जायेंगे और पृथ्वी पर स्वर्ग का दृश्य दिखलाई पड़ने लगेगा।”

अपने पिता की महान सफलता को देखकर युवराज बड़ा प्रभावित हुआ, 
साथ ही उसे यह भय भी हुआ कि कहीं इस कार्य की समाप्ति हो जाने पर 
नागार्जुन फिर राज्य-सत्ता को लेने का विचार न करे। 
पर उस समय वह बिना कुछ कहे-सुने अपने महलों को लौट गया।

कहते हैं कि इसके बाद राजकुमार ने जब अपने इस भय की चर्चा अपने घनिष्ठ इष्ट-मित्रों से की 
तो उनमें कुछ ने जो गुप्त रूप से नागार्जुन के विरोधी थे, उसे इस ‘भय’ से छुटकारा पाने की सलाह दी। 
उन्होंने राजकुमार को इस सम्बन्ध में बहुत भड़काया और बहकाया। 
अन्त में सबने षड्यन्त्र रचकर ऐसी योजना बनाई 
जिससे छलपूर्वक नागार्जुन अपनी प्रयोगशाला सहित विनष्ट हो गया।

इस प्रकार यद्यपि नागार्जुन का ‘अमृत’ बनाने का स्वप्न साकार न हो सका पर 
उसके प्रयत्नों ने पारद-विज्ञान और रसशास्त्र की इतनी अधिक उन्नति कर दी कि 
उसके द्वारा भारतीय चिकित्सा-शास्त्र की बड़ी प्रगति हुई।
 विभिन्न धातुओं की भस्मों द्वारा कठिन से कठिन रोग पूर्वापेक्षा अधिक शीघ्रता से दूर किये जाने लगे। 
जो लोग पारद की भस्म बनाने में सफल हुये, 
वे उसके प्रयोग से अमर नहीं तो दीर्घ-जीवन की प्राप्ति में समर्थ हो सके। 
उसने जो साधारण धातुओं को सुवर्ण में परिवर्तित करने की विधि निकाली 
उसके भी कुछ चिह्न वर्तमान समय के कीमियागरों में पाये जाते हैं।
आजकल भी कुछ विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा रासायनिक सुवर्ण बनाने के समाचार सुनने और 
पढ़ने में आते रहते हैं, चाहे उनका बनाना सुवर्ण कुछ हल्की जाति का ही क्यों न हो।

इस प्रकार नागार्जुन अपने आविष्कारों द्वारा लोक-कल्याण का एक ऐसा मार्ग खोल गया 
जिस पर चल कर ज्ञान-विज्ञान के अभ्यासी उल्लेखनीय सफलतायें प्राप्त कर सकते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘पारस’ और ‘अमृत’ अति प्राचीन काल से अत्यन्त आकर्षक विषय रहे हैं। 
भारतवर्ष ही नहीं अन्य देशों में भी अनगिनत लोग कीमियागर के पीछे पागल होकर घूमते रहे हैं। 
योरोप के कितने ही देशों में तो प्राचीन काल में कीमियागरों को प्राणदण्ड देने का नियम बना दिया गया था, क्योंकि ऐसे काम को वहाँ ‘जादू’ समझा जाता था और यह ईसाई धर्म के सिद्धान्तों के विरुद्ध था। 
पर कुछ भी हो इन्हीं कीमियागरों के उल्टे सीधे परीक्षणों के फलस्वरूप रसायन-विज्ञान की बहुत बातें मालूम हो गईं। जिनकी नींव पर ही आधुनिक रसायन-विज्ञान का भवन खड़ा किया गया है। 
उन प्राचीन कीमियागरों के लिए यह बात भी कम गौरवास्पद नहीं है कि आज उन्हीं के उत्तराधिकारी वैज्ञानिकों के प्रयत्न स्वरूप सोना बना सकना कोई असम्भव बात नहीं रह गई है। 
वैज्ञानिक लोग अपनी प्रयोगशालाओं में सीसे के छोटे कणों को सोने में परिवर्तित करने में सफल हो चुके हैं, यह बात दूसरी है कि अभी उसमें बहुत अधिक व्यय करना पड़ता है।
 पर वह दिन अधिक दूर नहीं है कि यदि विज्ञान की वर्तमान प्रगति कायम रही तो सोना संसार में एक साधारण वस्तु हो जायेगा।

SWARN RAHASYAM-RAS TANTRA AUR MAHASIDDH GUTIKA NIRMAN RAHASYA-

स्वर्ण रहस्यम - रस तंत्र और महासिद्ध गुटिका निर्माण रहस्य


रस तंत्र के उत्थान के लिए जितना परिश्रम नाथ योगियों ने किया है,
उतना किसी और ने नहीं किया,बल्कि ये कहा जाये की 
नाथ योगियों से ही इस विद्या के प्रादुर्भाव को सार्थकता मिली है
.इन नाथ योगियों ने ही अपनी अथक तपस्या से सृष्टि के उन गोपनीय रहस्यों को आत्मसात किया और उन सूत्रों के सहयोग से विभिन्न क्रियाओं,प्रक्रियाओं ,तत्वों,पदार्थों,वनस्पति का योग पारद के साथ किया और उनके प्रभावों को लिपिबद्ध किया.उसी के परिणाम स्वरुप हमें इस विज्ञानं से सम्बंधित प्रचुर साहित्य प्राप्त हुआ है.
रस रत्नाकर, रसार्णव आदि बहुत से ग्रन्थ आज भी प्राप्य हैं 
और बहुत से ऐसे ग्रन्थ हैं जो की या तो अप्राप्य है या फिर जिनके पास है वो कदापि इन्हें किसी को दिखाना या देना पसंद नहीं करते हैं.
मुझे ज्ञात है की १९९४ में सदगुरुदेव ने ‘पारद कंकण’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी और उन्होंने उसे छपवाने के लिए जब प्रेस में कार्यरत गुरुभाई को बुलाया और कहा की वे इस किताब की ५० प्रतियां छपवाना चाहते हैं और वो भी कल सुबह तक.
ये घटना रात्रि के ११ बजे की है. परन्तु उन गुरु भाई ने विनम्रता पूर्वक सदगुरुदेव को बताया की सदगुरुदेव इस साइज के पेपर उपलब्ध नहीं हैं और यदि दुसरे साइज के कागजो को उस नाप में काटा भी गया तो भी रात्रि भर में ये नहीं छप पायेगी.
 सदगुरुदेव ने उस किताब को हाथ में लेकर वही फाड दी. 
अब ना जाने कौन सा दुर्लभ ज्ञान हमारे समक्ष प्रकाशित होने वाला था,परन्तु हमारा दुर्भाग्य आड़े आ ही गया.
   खैर प्रज्ञानंद जी ने मुझे कभी बताया था की  सदगुरुदेव के वरिष्ठ सन्यासी शिष्यों ने उनके निर्देशन में  ऐसे बहुत से ग्रंथों की रचना की थी जिसमे तंत्र के विविध गोपनीय रहस्यों का संकलन होता था. 
पर उन्होंने उन्हें कई बार प्रकाशित भी नहीं करवाया.परन्तु ऐसी कई डायरियाँ उनके विविध शिष्यों के पास सुरक्षित रखी हुयी हैं धरोहर के रूप में. 
उन्ही में से एक ५०० पेज की डायरी मुझे दिखाई जिस पर हस्तलिखित अक्षरों में
“रसेद्र मणि प्रदीप” लिखा हुआ था,जिसमे पारद के सहयोग से विविध अचरजकारी गुटिकाओं का निर्माण करना बताया गया था.
उसी में एक प्रकरण विविध मन्त्रों और वनस्पतियों के सहयोग से साबर मन्त्रों के द्वारा खेचरी गुटिका,स्पर्श मणि,महासिद्ध साबर गुटिका आदि ५४ गुटिकाओं के निर्माण पर था.जिसे उच्च नाथ योगियों के आवाहन कर प्राप्त किया गया था.
और आश्चर्य ये था की ये सब निर्माण कार्य साबर मन्त्रों के सहयोग से होता है, 
अद्भुत पद्धतियों का समावेश लिए हुए ये क्रियाएँ थी.
सर्वप्रथम जिस गुटिका की निर्माण विधि इस प्रकरण में अंकित थी वो इसी महासिद्ध साबर गुटिकाकी विधि थी...... 
जिसके प्रयोग से उन महासिद्धों का न सिर्फ आवाहन होता था अपितु विविध मनोकामनाओं की पूर्ती हेतु जिन भी साबर मन्त्रों को सिद्ध करना होता था,
वे सभी सहजता से सिद्ध हो जाते हैं.
इस गुटिका के निर्माण के लिए जिस अष्ट संस्कारित पारद का प्रयोग किया जाता है उसके सभी संस्कार रसांकुश भैरव और भैरवी के मन्त्रों से होता है 
परन्तु ये मंत्र जपदीपनी क्रम युक्त होना चाहिए,
तभी इस पारद में वो प्रभाव आएगा जो इस मणि के निर्माण के लिए अपेक्षित .
तत्पश्चात इसे स्वर्ण ग्रास दिया जाये और इसे मुक्ता  पिष्टीके साथ खरल किया जाये,
जब पारद के साथ उस पिष्टी का पूर्ण योग हो जाये तब उसे,
काले विष, विशुद्ध ताम्र भस्म,बैंगनी धतूरे,सिंहिका,मतस्याक्षी,श्वेतार्क और ताम्बूल के स्वरस के साथ १२० घंटों तक खरल किया जाये,और 
खरल करते समय-
ॐ सारा पारा,भेद उजारा, देत ज्ञान उजारा ,दूर अँधियारा,शिव की शक्ति उरती आये,भीतर समाये,करे दूर अँधियारा जो  ना करे तो शंकर को त्रिशूल ताडे,शक्ति को खडग गिरे,छू .
उपरोक्त मंत्र का जप करते जाये,जब भी रस सूखने लगे तो नया रस डालते जाये ,
जब समयावधि पूर्ण हो जाये तो उस पिष्टी को सुखाकर शराव सम्पुट कर २ पुट दे दे,
और स्वांग शीतल होने के बाद उस पिष्टी के साथ पुनः मनमालिनी मंत्र का जप करते हुए उस पिष्टी का १० वा भाग पारद डालकर खरल करे और 
मूष में रख कर गरम करे और धीरे धीरे विल्वरस का चोया देते जाये,
लगभग १० गुना रस धीरे धीरे चोया देते हुए शुष्क कर ले.
अब आप इसे पिघलाकर गुटिका का आकार दे दे,इस क्रिया में पारद अग्निस्थायी हो जाता है और गुटिका हलके रक्तिम वर्ण की बनती है जो पूर्ण दैदीप्य मान होती है.
यदि पारद अग्निसह्य नहीं हुआ तो क्रिया असफल समझो.
इस गुटिका को सामने रख पुनः ३ घंटों तक रसांकुश मन्त्रों का दीपनी क्रिया के साथ जप करो और गोरख मन मुद्रा का प्रदर्शन करो.
तथा इसके बाद प्राण प्रतिष्ठा मन्त्रों से इसे प्रतिष्ठित कर 
इसमें ६४ रस सिद्धों का स्थापन कर दो,फिर षोडशोपचार पूजन कर उस पर आप मनोवांछित प्रयोग कर सकते हैं.
इसे कनकधारा मंत्र से यदि २१ माला मंत्र कर सिद्ध कर लिया जाये और 
पूजन स्थल पर स्थापित कर दिया जाये तो ये गुटिका लक्ष्मी को बाँध देती है
 जिससे व्यक्ति को प्रचुर ऐश्वर्य की प्राप्ति होती ही है.

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अष्ट संस्कारित पारद को यदि स्वर्णग्रास देकर कांच की बोतल में 
गधे के ताजे मूत्र के साथ डालकर जमीन में गडा दिया जाये तो 
६ मास के बाद पारद की स्वतः भस्म बन जाती है और
 ये भस्म ताम्बे को स्वर्ण में परिवर्तित करती है.  

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For the development of Rass Tantra the hard work and devotion performed by yogis nobody else could do the same that’s why we can say that this science is presented in its present full fledge form just because of them. It was the same yogis who with their strong reverence explored the hidden aspect of nature and then successfully co-joined those natural powers with different elements, particles and flora and further joined these things with parad (mercury) and successfully recorded its results on the paper as well. And due to their written records we have great grand literature about this science. Rass Ratnaker, Rasarnav granths belongs to this category and there are many other granths too which are either not available or the people who has don’t want to give them to anybody. I still remember in 1994 Sadgurudev compose and compile a granth namedPARAD KANKAN and in order to get it printed he called a gurubhai who was working in a press but as soon as he said that to get this granth printed desired pages were not available and also there is no chance to create that type of pages through the cutting and re-setting of normal pages. As Sadgurudev heard it he immediately torn that hand written manuscript and we lost valuable knowledge without knowing its basics due to our bad luck.
While leaving it behind I remembered once Pragyanand ji told me that under the supervision of Sadgurudev many of his pupils had written precious literature on the secrets and mysterious of tantra though they did not get them printed yet keep them carefully in the form of diaries. Out of those he showed me one diary having 500 pages with the titleRASENDRA MANI PRADEEP, in which there were countless procedures were written through which amazing gutikas can be made with the help of parad. Out of these practices one was based on the fact that how with the trio combination of different mantras, flora and sabar mantras Khechri gutikas, Sparsh Mani, Mahasidhi Sabar gutika and 54 another gutikas like this can be made. The first procedure recorded in that was about the making process of this Mahasidhi Sabar gutika……with the help of not only Mahasidhs can be enchanted and called but also fulfilled every desire and also was helpful to sidh the tough sabar sadhnas.
For the making of this gutika Ashht Sanskarit Parad is used that too should be sanskarit with the mantra of RASANKUSH BHAIRAV and BHAIRAVIbut these mantra should be systematically organized as per JAPP DEEPNIsystem so that parad can get desired  effect which is must for the creation of this Mani. Than one should offer Swarn grass and get it mixed withMUKTA PISHHTI. When it make proper good mixture then again this mixture should be blended with Black Venom ( kala vish), Pure Tamrr Bhasam, Purple tutia ( dhatura),Sinhika, Mastyakshi,Shwetarak and Tambool  for 120 hours and at the time of mixing them one should enchant the mantra-
OM SARA PARAA,BHED UTARA,DET GYAN UJAARA,DOOR ANDHIYARA,SHIV KI SHAKTI URTI AAYE,BHEETAR SAMAAY,KARE DOOR ANDHIYAARAA  JO NA KARE TO SHANKAR KO TRISHOOL TAADE,SHAKTI KO KHADAG GIRE,CHHOO
When it seems that mixture is getting dried then again put some more mixture in it and when 120 hours get passed then get that Pishti dried and make it shrav sambut by Putting it fire for decided time period. After that when this whole mixture cools down then again with that Pishti blend 1/10 part of parad by keep on enchanting Mammalini Mantra then slowly-slowly make it hot and offer VILVRAS’s liquid  to it. By offering near about 1/10 liquid make it complete dry. Now firstly melt it and then convert in the form of gutika. In this whole process parad make itself fire proof due to that gutika took light blood color which is fully authentic. But if parad remain fails to get the quality of fire proof then it is decided that whole procedure is failed. By putting this gutika in front of you continuously for 3 hours enchant RASANKUSH mantra with DEEPNI KRIYA while doing this one should display Gorakh Mann Mudra. Now with the help of pran pratishthit mantras get it pratishthit and then sthapan (make presented) 64 RASS SIDHS in it. And then by making SHHODASH UPCHAR on it you can do desired practical. If this gutika can be get sidh by moving the beads of rosary for 21 times of KANAK DHARA mantra then this gutika can settle down Maa Laxmi in your desired place forever and ever which will bless your life with comforts and luxuries.
By offering Swarn grass to Ashht Sanskarit parad and then put it in glass bottle with the fresh urine of donkey and further then putting this bottle under the earth for 6 months then this parad converts itself in BHASAM which has the capacity to change copper into gold.

SWARN RAHASYAM-RAS TANTRA AUR MAHASIDDH GUTIKA NIRMAN RAHASYA-स्वर्ण रहस्यम - रस तंत्र और महासिद्ध गुटिका निर्माण रहस्य


रस तंत्र के उत्थान के लिए जितना परिश्रम नाथ योगियों ने किया है,उतना किसी और ने नहीं किया,बल्कि ये कहा जाये की नाथ योगियों से ही इस विद्या के प्रादुर्भाव को सार्थकता मिली है.इन नाथ योगियों ने ही अपनी अथक तपस्या से सृष्टि के उन गोपनीय रहस्यों को आत्मसात किया और उन सूत्रों के सहयोग से विभिन्न क्रियाओं,प्रक्रियाओं ,तत्वों,पदार्थों,वनस्पति का योग पारद के साथ किया और उनके प्रभावों को लिपिबद्ध किया.उसी के परिणाम स्वरुप हमें इस विज्ञानं से सम्बंधित प्रचुर साहित्य प्राप्त हुआ है.रस रत्नाकर, रसार्णव आदि बहुत से ग्रन्थ आज भी प्राप्य हैं और बहुत से ऐसे ग्रन्थ हैं जो की या तो अप्राप्य है या फिर जिनके पास है वो कदापि इन्हें किसी को दिखाना या देना पसंद नहीं करते हैं.मुझे ज्ञात है की १९९४ में सदगुरुदेव ने ‘पारद कंकण’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी और उन्होंने उसे छपवाने के लिए जब प्रेस में कार्यरत गुरुभाई को बुलाया और कहा की वे इस किताब की ५० प्रतियां छपवाना चाहते हैं और वो भी कल सुबह तक.ये घटना रात्रि के ११ बजे की है. परन्तु उन गुरु भाई ने विनम्रता पूर्वक सदगुरुदेव को बताया की सदगुरुदेव इस साइज के पेपर उपलब्ध नहीं हैं और यदि दुसरे साइज के कागजो को उस नाप में काटा भी गया तो भी रात्रि भर में ये नहीं छप पायेगी. सदगुरुदेव ने उस किताब को हाथ में लेकर वही फाड दी. अब ना जाने कौन सा दुर्लभ ज्ञान हमारे समक्ष प्रकाशित होने वाला था,परन्तु हमारा दुर्भाग्य आड़े आ ही गया.
   खैर प्रज्ञानंद जी ने मुझे कभी बताया था की  सदगुरुदेव के वरिष्ठ सन्यासी शिष्यों ने उनके निर्देशन में  ऐसे बहुत से ग्रंथों की रचना की थी जिसमे तंत्र के विविध गोपनीय रहस्यों का संकलन होता था. पर उन्होंने उन्हें कई बार प्रकाशित भी नहीं करवाया.परन्तु ऐसी कई डायरियाँ उनके विविध शिष्यों के पास सुरक्षित रखी हुयी हैं धरोहर के रूप में. उन्ही में से एक ५०० पेज की डायरी मुझे दिखाई जिस पर हस्तलिखित अक्षरों में“रसेद्र मणि प्रदीप” लिखा हुआ था,जिसमे पारद के सहयोग से विविध अचरजकारी गुटिकाओं का निर्माण करना बताया गया था.उसी में एक प्रकरण विविध मन्त्रों और वनस्पतियों के सहयोग से साबर मन्त्रों के द्वारा खेचरी गुटिका,स्पर्श मणि,महासिद्ध साबर गुटिका आदि ५४ गुटिकाओं के निर्माण पर था.जिसे उच्च नाथ योगियों के आवाहन कर प्राप्त किया गया था.और आश्चर्य ये था की ये सब निर्माण कार्य साबर मन्त्रों के सहयोग से होता है, अद्भुत पद्धतियों का समावेश लिए हुए ये क्रियाएँ थी.सर्वप्रथम जिस गुटिका की निर्माण विधि इस प्रकरण में अंकित थी वो इसी महासिद्ध साबर गुटिकाकी विधि थी...... जिसके प्रयोग से उन महासिद्धों का न सिर्फ आवाहन होता था अपितु विविध मनोकामनाओं की पूर्ती हेतु जिन भी साबर मन्त्रों को सिद्ध करना होता था,वे सभी सहजता से सिद्ध हो जाते हैं.
इस गुटिका के निर्माण के लिए जिस अष्ट संस्कारित पारद का प्रयोग किया जाता है उसके सभी संस्कार रसांकुश भैरव और भैरवी के मन्त्रों से होता है परन्तु ये मंत्र जपदीपनी क्रम युक्त होना चाहिए,तभी इस पारद में वो प्रभाव आएगा जो इस मणि के निर्माण के लिए अपेक्षित है.तत्पश्चात इसे स्वर्ण ग्रास दिया जाये और इसे मुक्ता  पिष्टीके साथ खरल किया जाये,जब पारद के साथ उस पिष्टी का पूर्ण योग हो जाये तब उसे,काले विष, विशुद्ध ताम्र भस्म,बैंगनी धतूरे,सिंहिका,मतस्याक्षी,श्वेतार्क और ताम्बूल के स्वरस के साथ १२० घंटों तक खरल किया जाये,और खरल करते समय-
ॐ सारा पारा,भेद उजारा, देत ज्ञान उजारा ,दूर अँधियारा,शिव की शक्ति उरती आये,भीतर समाये,करे दूर अँधियारा जो  ना करे तो शंकर को त्रिशूल ताडे,शक्ति को खडग गिरे,छू .
उपरोक्त मंत्र का जप करते जाये,जब भी रस सूखने लगे तो नया रस डालते जाये ,जब समयावधि पूर्ण हो जाये तो उस पिष्टी को सुखाकर शराव सम्पुट कर २ पुट दे दे,और स्वांग शीतल होने के बाद उस पिष्टी के साथ पुनः मनमालिनी मंत्र का जप करते हुए उस पिष्टी का १० वा भाग पारद डालकर खरल करे और मूष में रख कर गरम करे और धीरे धीरे विल्वरस का चोया देते जाये,लगभग १० गुना रस धीरे धीरे चोया देते हुए शुष्क कर ले.अब आप इसे पिघलाकर गुटिका का आकार दे दे,इस क्रिया में पारद अग्निस्थायी हो जाता है और गुटिका हलके रक्तिम वर्ण की बनती है जो पूर्ण दैदीप्य मान होती है.यदि पारद अग्निसह्य नहीं हुआ तो क्रिया असफल समझो.इस गुटिका को सामने रख पुनः ३ घंटों तक रसांकुश मन्त्रों का दीपनी क्रिया के साथ जप करो और गोरख मन मुद्रा का प्रदर्शन करो.तथा इसके बाद प्राण प्रतिष्ठा मन्त्रों से इसे प्रतिष्ठित कर इसमें ६४ रस सिद्धों का स्थापन कर दो,फिर षोडशोपचार पूजन कर उस पर आप मनोवांछित प्रयोग कर सकते हैं.इसे कनकधारा मंत्र से यदि २१ माला मंत्र कर सिद्ध कर लिया जाये और पूजन स्थल पर स्थापित कर दिया जाये तो ये गुटिका लक्ष्मी को बाँध देती है जिससे व्यक्ति को प्रचुर ऐश्वर्य की प्राप्ति होती ही है.

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अष्ट संस्कारित पारद को यदि स्वर्णग्रास देकर कांच की बोतल में गधे के ताजे मूत्र के साथ डालकर जमीन में गडा दिया जाये तो ६ मास के बाद पारद की स्वतः भस्म बन जाती है और ये भस्म ताम्बे को स्वर्ण में परिवर्तित करती है.  

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For the development of Rass Tantra the hard work and devotion performed by yogis nobody else could do the same that’s why we can say that this science is presented in its present full fledge form just because of them. It was the same yogis who with their strong reverence explored the hidden aspect of nature and then successfully co-joined those natural powers with different elements, particles and flora and further joined these things with parad (mercury) and successfully recorded its results on the paper as well. And due to their written records we have great grand literature about this science. Rass Ratnaker, Rasarnav granths belongs to this category and there are many other granths too which are either not available or the people who has don’t want to give them to anybody. I still remember in 1994 Sadgurudev compose and compile a granth namedPARAD KANKAN and in order to get it printed he called a gurubhai who was working in a press but as soon as he said that to get this granth printed desired pages were not available and also there is no chance to create that type of pages through the cutting and re-setting of normal pages. As Sadgurudev heard it he immediately torn that hand written manuscript and we lost valuable knowledge without knowing its basics due to our bad luck.
While leaving it behind I remembered once Pragyanand ji told me that under the supervision of Sadgurudev many of his pupils had written precious literature on the secrets and mysterious of tantra though they did not get them printed yet keep them carefully in the form of diaries. Out of those he showed me one diary having 500 pages with the titleRASENDRA MANI PRADEEP, in which there were countless procedures were written through which amazing gutikas can be made with the help of parad. Out of these practices one was based on the fact that how with the trio combination of different mantras, flora and sabar mantras Khechri gutikas, Sparsh Mani, Mahasidhi Sabar gutika and 54 another gutikas like this can be made. The first procedure recorded in that was about the making process of this Mahasidhi Sabar gutika……with the help of not only Mahasidhs can be enchanted and called but also fulfilled every desire and also was helpful to sidh the tough sabar sadhnas.
For the making of this gutika Ashht Sanskarit Parad is used that too should be sanskarit with the mantra of RASANKUSH BHAIRAV and BHAIRAVIbut these mantra should be systematically organized as per JAPP DEEPNIsystem so that parad can get desired  effect which is must for the creation of this Mani. Than one should offer Swarn grass and get it mixed withMUKTA PISHHTI. When it make proper good mixture then again this mixture should be blended with Black Venom ( kala vish), Pure Tamrr Bhasam, Purple tutia ( dhatura),Sinhika, Mastyakshi,Shwetarak and Tambool  for 120 hours and at the time of mixing them one should enchant the mantra-
OM SARA PARAA,BHED UTARA,DET GYAN UJAARA,DOOR ANDHIYARA,SHIV KI SHAKTI URTI AAYE,BHEETAR SAMAAY,KARE DOOR ANDHIYAARAA  JO NA KARE TO SHANKAR KO TRISHOOL TAADE,SHAKTI KO KHADAG GIRE,CHHOO
When it seems that mixture is getting dried then again put some more mixture in it and when 120 hours get passed then get that Pishti dried and make it shrav sambut by Putting it fire for decided time period. After that when this whole mixture cools down then again with that Pishti blend 1/10 part of parad by keep on enchanting Mammalini Mantra then slowly-slowly make it hot and offer VILVRAS’s liquid  to it. By offering near about 1/10 liquid make it complete dry. Now firstly melt it and then convert in the form of gutika. In this whole process parad make itself fire proof due to that gutika took light blood color which is fully authentic. But if parad remain fails to get the quality of fire proof then it is decided that whole procedure is failed. By putting this gutika in front of you continuously for 3 hours enchant RASANKUSH mantra with DEEPNI KRIYA while doing this one should display Gorakh Mann Mudra. Now with the help of pran pratishthit mantras get it pratishthit and then sthapan (make presented) 64 RASS SIDHS in it. And then by making SHHODASH UPCHAR on it you can do desired practical. If this gutika can be get sidh by moving the beads of rosary for 21 times of KANAK DHARA mantra then this gutika can settle down Maa Laxmi in your desired place forever and ever which will bless your life with comforts and luxuries.
By offering Swarn grass to Ashht Sanskarit parad and then put it in glass bottle with the fresh urine of donkey and further then putting this bottle under the earth for 6 months then this parad converts itself in BHASAM which has the capacity to change copper into gold.