शनिवार, 12 नवंबर 2016

स्वर्ण निर्माण की रहस्यमयी विद्या-रसतंत्र विद्या

विकास एस.खत्री
हमारे देश के आम लोगों की यही धारणा है कि आज तक जो भी नये अविष्कार या खोजें हुई हैं या हो रही हैं,
 वे सभी पश्चिमी देशों की देन है। इन नयी खोजों में भारतीयों का योगदान न के बराबर है, परन्तु यह सोचना गलत है।
 हमारे प्राचीन ग्रन्थों, वेद तथा पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि हमारा देश बहुत पहले से विज्ञान के क्षेत्र में आगे था। इसके अनेकों उदाहरण मिलते हैं। जैसे- चरक व सुश्रुत प्राचीन भारत के बहुत ही विख्यात चिकित्सक हुए। 
इन्होंने प्लास्टिक सर्जरी तक का विशद वर्णन अपनी पुस्तकों में किया है। 
यही नहीं चेचक के टीके का अविष्कार लगभग 415 वर्ष पहले भारत में ही हुआ था। 
चेचक के रोगी के फफोलों का रस कांच पर सुरक्षित रखा जाता फिर किसी को चेचक होने पर उसकी बांह के नीचे चीरा लगाकर यह रस डाल दिया जाता, जिससे रोगी ठीक हो जाता।
अणु के प्रपितामह डेमोक्रीट्स से भी पूर्व, भारतीय विचारक कणाद घोषणा कर चुके थे कि अणु ही ब्रह्माण्ड की मूल सत्ता है। जो आज पाश्चात्य वैज्ञानिकों द्वारा भी मान्य हो चुका है।
हालांकि चतुर्थ आयाम का पता सर्वप्रथम आइन्सटीन ने लगाया था, परन्तु चतुर्थ आयाम का अस्तित्व हमारे ऋषि मुनि वैज्ञानिक अत्यन्त प्राचीन काल से स्वीकार करते आये है। 
अन्र्तध्यान हो जाना वस्तुत: चतुर्थ आयाम में प्रवेश करना ही था।
हमारे प्राचीन ऋषि वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले महाप्रलय के बाद जो पृथ्वी बनी, उसकी आयु 1,67,12,21060 वर्ष है। पिछले महाप्रलय के बाद से 6 मन्वन्तर (30,67,20000 मानव वर्ष) बीत चुके हैं और सातवां इस समय चल रहा है। 
जिसका भी 28 वां महायुग (43,20000 मानव वर्ष) चल रहा है। 
इस महायुग के भी तीन युग-सत्य युग (17,28000 मानव वर्ष), त्रेता युग (12,66,000) मानव वर्ष) और द्वापर युग (4,32,000 मानव वर्ष) बीत चुके हैं। 
अब कलियुग (4,32,000 मानव वर्ष) का 5061 वां वर्ष चल रहा है। 
इस अवधि के मानव वर्षों को जोड़ा जाये तो पृथ्वी की आयु ज्ञात होती है, तकरीबन 2 अरब वर्ष। पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी पृथ्वी की आयु इतनी ही बताई है।
नगेन्द्रनाथ बसु ने विश्वकोष में बताया है कि सिंकदर के एक सेनापति ने 328 ई.पू.पंजाब में सर्वप्रथम कागज देखा,
 जो बंगाल तक प्रचलित था अर्थात कागज के आविष्कार का श्रेय भारत को ही जाता है न कि चीन को।
चश्मे के लैंस ईजाद करने का श्रेय पाश्चात्य वैज्ञानिक रोजर बेकन को दिया जाता है, परन्तु भारत में इस विज्ञान का विकास पहले ही हो चुका था। बाद में चीनियों ने शीशे के लैंस का प्रयोग भारत में सीखा। 
सन 1260 में लैंस का प्रयोग चीन ने तुर्की से हांसिल किया, जबकि तुर्की यह कला भारत से पहले ही सीख चुका था।
वैज्ञानिकता में देवनागरी लिपि का मुकाबला विश्व की कोई लिपि नहीं कर सकती। 
एक जर्मन वैज्ञानिक ने विश्व की मुख्य भाषाओं को कुछ अक्षरों में मिट्टी के प्रतिरुप बनाये जो भीतर से खोखले थे।
 उन्हें फूंकने पर देवनागरी अक्षरों के सिवाय किसी और लिपि के अक्षरों की प्रतिध्वनियां मूल अक्षरों की प्रतिध्वनि के समान नहीं पाई गई।
कहाकवि बिहारी ने अपने ग्रन्थ बिहारी सतसई में राधा की वंदना करते हुए कहा है कि 
जा तन की झांई पड़े, श्याम हरित दुति होई। 
अर्थात उनके कारण कृष्ण का सांवला रंग भी हरी आभा से युक्त हो जाता है।
 आज के वैज्ञानिक यह मानते हैं कि तन और मन शान्ति देने वाला रंग हरा ही है।
मैसूर विश्वविद्यालय की अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति अनुसंधान अकादमी ने महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित 
वैज्ञानिक शास्त्र का अंग्रेजी में अनुवाद किया तो वैज्ञानिक जगत स्तब्ध रह गया।
 इसमें वायुयान को अदृश्य करने, दुश्मनों के वायुयान में हो रही बातचीत को सुनने और 
उन्हें गिराने की यांत्रिक विधियां बतायी गई हैं।
 इसी प्रकार एक अन्य प्राचीन ग्रन्थ ‘समरांगण सूत्रधारÓ में विभिन्न वायुयानों के गुण अवगुण, गति, उड़ान-क्षमता और उतरने के तरीकों पर विस्तृत विवेचना मिलती है। 
इसमें ईधन के लिए पारे के चार सिलेंडर रखे जाते थे। रॉकेट के रुप में ऊपर उठाया जाता था। 
यह तेज गर्जना के साथ ऊपर उठता था।
समय की सूचना देने वाली घड़ी का जन्म ईसा के हजारों वर्ष पूर्व भारत में हुआ था। 
घड़ी के बीच में स्थित लोहे की पत्ती छायाओं के आधार पर समय बताती है. जयपुर और दिल्ली के जंतर-मंतर में यह धूप घड़ी आज भी देखी जा सकती है।
ज्योतिष शास्त्र के गणित का मूलाधार उज्जैन है, क्योंकि उज्जैन को भूमध्य रेखा पर आधारित मानकर गणना का माध्यम स्वीकार किया गया है। भारत के ठीक मध्य में होने के कारण उज्जैन को भारत का हृदय माना जाता है
 और यह पुराण काल में भारत का ग्रीनविच था। 
उज्जैन के सिवाय विश्व में और कहीं भी (किसी भी अक्षांश पर) सूर्य मस्तक पर नहीं आता। इस भौगोलिक विशेषता के कारण ही उज्जैन को ठीक काल ज्ञान स्थल माना जाता है।
पारद के सम्बन्ध में जो भी अन्वेषण हमारे यहां हुए हैं, उनसे पता चलता है कि इस वस्तु का महत्व प्राचीन में देह सिद्धि की अपेक्षा धातु सिद्धि के संबंध में अधिक प्रयोग हुआ है। हल्की धातुओं से पारद के द्वारा सोना बनाने की कला हमारे यहां बहुत प्राचीन काल से रही है। इस विद्या में दक्ष अनेक सिद्ध हमारे यहां हुए हैं। इन सिद्धों में नागार्जुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। यह नागार्जुन सन 172 के करीब राजा शालिवाहन के समय में हुए थे। उन्होंने ‘रस रत्नाकरÓ तथा ‘रसेन्द्र मंगलÓ नामक दो ग्रन्थ लिखे हैं। रसेन्द्र मंगल के साथ कक्ष पुट नामक एक छोटा सा ग्रन्थ और जुड़ा हुआ है। इस ग्रन्थ में ‘रसायन विद्याÓ या कीमियागरी का वर्णन प्रश्नोत्तर के रुप में किया गया है। इस ग्रन्थ में उन्होंने गुरू वशिष्ठ तथा माण्डव्य का नाम दिया है। इससे स्पष्ट होता है कि उनके पहले भी इस परम्परा में वशिष्ठ तथा माण्डव्य हुए थे। इन नागार्जुन के पश्चात सन ८०० में दूसरे नागार्जुन तथा शवरपाद इत्यादि अनेक सिद्ध हुए हैं जिनके लिखे हुए कई ग्रन्थों का अनुवाद तिब्बती भाषा में मिलता है।
हल्की धातुओं से रासायनिक प्रक्रियाओं के द्वारा स्वर्ण या सोने के समान मूल्यवान धातुओं के निर्माण करने की विद्या को ‘कीमियागरीÓ कहते हैं। भारतवर्ष में इस विद्या को रसायन विद्या या रसतंत्र विद्या कहते हैं। रस तंत्र विद्या का क्षेत्र कीमियागरी से कहीं अधिक विस्तृत है। इस विद्या के अन्तर्गत स्वर्ण सिद्धि के साथ-साथ देह सिद्धि का भी समावेश होता है। अर्थात जिस प्रकार रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा हल्की धातुओं को ऊँची धातुओं में बदला जाता है। उसी प्रकार जर्जरित शरीर को इस विद्या के द्वारा पुन: यौवन से अभिभूत भी किया जा सकता है।
हमारे प्राचीन ग्रन्थों से पता चलता है कि जिस प्रकार वेदों के आदि प्रवर्तक ब्रह्मा तथा आयुर्वेद के आदि प्रवर्तक, अश्विनी कुमार है, उसी प्रकार रस तंत्र और रसायन विद्या के आदि प्रवर्तक भगवान शिव है। ऐसा कहा जाता है कि पारद के द्वारा देह की सिद्धि तथा धातु का ज्ञान सबसे पहले महादेव पार्वती को बताया था। इससे पता चलता है कि जिस प्रकार आयुर्वेद इस देश का प्राचीन विज्ञान है, उसी प्रकार रस तंत्र भी हमारे यहां का बहुत प्राचीन विज्ञान है। इस रस तंत्र की सारी बुनियाद पारद के ऊपर रखी हुई है। पारद के ऊपर जितने अन्वेषण हमारे देश के अन्दर हुए हैं। उतने सारे संसार के किसी अन्य देश में नहीं हुए। पारद को अष्टादश संस्कारों से युक्त करना, उसको विभूक्षित करके स्वर्ण को पचाने के योग्य बनाना, उसकी गोली बनाकर उक्त गोली के द्वारा स्वर्ण की सिद्धि करना आदि अनेकों प्रयोग पारद के संबंध में हमारे यहां हुए हैं।
वानस्पतिक प्रयोग
पारद की गोली बनाने तथा तांबे को सोने के रूप में परिवर्तित कर देने के लिए भारतवर्ष में कई वनस्पतियों पर भी प्रयोग हुए हैं तथा ऐसी 64 दिव्य औषधियों का आयुर्वेद में उल्लेख किया गया है। जो इस कार्य में सफल हुई है। इन वनस्पतियों में रुद्रवन्ती, कांगक्षेत्री, तेलियाकन्द, पलाश, तिलका, उतरण, काली चित्रक, नागार्जुनीय, इत्यादि वनस्पतियों के नाम उल्लेखनीय हैं। इन सब बातों से पता चलता है कि भारतवर्ष में पारद के द्वारा स्वर्ण सिद्धि तथा देह के संबंध में अनेक प्रकार के अन्वेषण हुए हैं। मगर स्वर्णसिद्धि या कीमियागरी के संबंध में जो ज्ञान यहां उपार्जित हुआ, वह गुरू शिष्य परम्परा में ही दिए जाने के कारण लुप्तप्राय हो गया। अगर कहीं कुछ है भी तो वह बहुत दबा-छिपा हुआ है। उसके संबंध में बिना विश्वस्त सूत्रों के कुछ कह पाना संभव नहीं। मगर देह सिद्धि के संबंध में पारद का ज्ञान शास्त्र परम्परा होने की वजह से आंशिक रुप से अभी भी हमारे यहां विद्यमान है। यद्यपि उसके अष्टादश संस्कार तथा उसको विभूक्षित करने की पद्धति का ज्ञान हमारे यहां से करीब-करीब लुप्त हो गया है फिर भी उसका जितना ज्ञान अभी तक हमारे यहां सुरक्षित है, उसके लिए हम कह सकते हैं कि वह आज भी सर्वोत्कृष्ट है।
मध्यकाल में सम्राट जहांगीर के समय में अबूबकर नामक एक मुसलमान कीमियागर का नाम भी पाया जाता है। अबूबकर ने भी फारसी तथा अरबी में इस विषय पर कुछ रचनायें की थीं। आधुनिक समय में कीमियागरी की जानकारी के संबंध में बनारस के वैद्य स्व. कृष्णपाल शास्त्री का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय माना जाता है।
जिसके संबंध में बनारस विश्वविद्यालय के विश्वनाथ मंदिर में एक शिलालेख भी लगा हुआ है। वह शिलालेख इस प्रकार है।
सिद्धे रसे करिष्यामि, निर्दारिद्रयमय जगत्
जिन्होंने प्राचीन रसायन शाखा के अनेक गुप्त रहस्यों को प्रत्यक्ष करते हुए कहा था कि पारद के द्वारा स्वर्ण बनाने की रसायन विद्या जानने पर कोई भी मनुष्य दरिद्र नहीं रह सकेगा।
प्राचीन मिस्र में कीमियागरी
प्राचीन मिस्र के अन्तर्गत भी कीमियागरी के संबंध में काफी अनुसंधान हुए। कीमिया की उत्पत्ति के संबंध में वहां पर जो दन्तकथाएं प्रचलित हैं उनसे मालूम होता है कि मिस्र के देवता हरमस ने मिस्र में इस कला का प्रचार किया तथा स्वर्ण के दूतों ने उन स्त्रियों को इस का कला ज्ञान दिया, जिनसे उन्होंने विवाह कर लिये।
प्राचीन यूनान में कीमियागरी
यूनान के अन्तर्गत भी कीमियागरी के संबंध में कई अन्वेषण हुए तथा वहां से इसका प्रचार अरब देशों तथा यूरोप में हुआ। प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु तथा अन्य लोगों ने कीमियागरी के ऊपर कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था। ये सिद्धान्त द्रव्य, आकार तथा स्प्रिट पर निर्भर थे। अरस्तु के मतानुसार जब लोहे से कीट (मोरचा) बनता है तब इस क्रिया में जो अंश बदलता है, वह आकार है तथा जो अंश अपरिवर्तित रह जाता है वह पदार्थ है। अंतिम विश्लेषण पर केवल एक ही पदार्थ मिलता है, जो अनेक आकार धारण करता है। किसी भी वस्तु में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। केवल आकार तथा रूप बदल सकता है। किसी भी वस्तु को अति सरल पदार्थ में परिवर्तित कर फिर उसे दूसरा आकार दिया जा सकता है। इस विषय में तांबा तथा स्वर्ण में अंतर केवल आकार का है। यदि तांबे को गंधक के साथ गरम करें या सल्फाईट के विलयन से क्रिया करें तो तांबे का धात्विक आकार नष्ट हो जाता है और उसके बदले अन्य रासायनिक क्रियाओं के द्वारा उसे स्वर्ण का आकार दिया जा सकता है।
विदेशों के अन्तर्गत कीमियागरी के संबंध में अरस्तु, जोसीमस, डिमाक्रेटस, जाबिर तथा चीनी वी-पो-यांग इत्यादि कीमियागरों के नाम विशेष रुप से प्रसिद्ध हैं। आधुनिक विज्ञान पिछली शताब्दी तक धातुओं के रासायनिक तत्वों का परिवर्तन के द्वारा दूसरे तत्वों के रुप में बदल देने की, या तांबे को स्वर्ण के रुप में बदल देने की कल्पना को बिल्कुल असंभव तथा हास्यास्पद समझता था। पर इस शताब्दी में इस परिवर्तन का सिद्धान्त रुप में वह संभव मानने लग गया है। यद्यपि इस क्रिया को व्यवहारिक रुप देने के लिए अपार शक्ति तथा उष्णता की आवश्यकता को अनिवार्य समझता है।

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