शनिवार, 12 नवंबर 2016

प्राचीन भारत का महान् वैज्ञानिक-सिद्ध नागार्जुन

पतंजलि योग दर्शन में बतलाया गया है कि योग कि दिव्य विभूतियों को प्राप्त करने के कई मार्ग हैं। 
जिस प्रकार षट्चक्रों का बेध करने से, पंचकोशों की साधना करके चेतना के उच्च स्तर पर आरुढ होने से ज्ञानयोग का अभ्यास करके अपने को परमात्मा-स्वरूप अनुभव कर लेने से 
मनुष्य योग की चमत्कारी सिद्धियों का स्वामी बन सकता है, 
उसी प्रकार शक्तिशाली जड़ी-बूटियों और औषधियों का प्रयोग करके भी 
इस कार्य में सफलता प्राप्त की जा सकती है।
भारत के “प्राचीन रस वैद्यों ने पारद के सम्बन्ध में बड़ी खोजबीन की थी।

जिस प्रकार आजकल के वैज्ञानिकों ने ‘यूरेनियम’ धातु के प्रयोग से उस ‘अणु शक्ति’ को प्राप्त कर लिया है, जिससे आप चाहे तो संसार की प्रलय कर दें और चाहे इस पृथ्वी को सुवर्ण मंडित बनाकर 
मनुष्यों को देवताओं के समान अजर-अमर बना दें, 
उसी प्रकार प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों ने भी पारद के ऊपर प्रयोग करके ऐसी विधियाँ निकाली थीं, 
जिससे ताँबे का सोना बनाना तो संभव था ही साथ ही मनुष्य अपने भौतिक शरीर को पूर्णतः नहीं तो 
अधिकाँश में अमर भी बना सकता था। 
“सत्य हरिश्चन्द्र” नाटक में तंत्र-विद्या के साधक कापालिक ने महाराज हरिश्चन्द्र को “पारद गुटिका” का प्रयोग करने की सम्मति देते हुये कहा था -
याही के पराभव सी, अमर देव सम होय।

सिद्ध नागार्जुन भारत वर्ष का इसी श्रेणी का एक महान वैज्ञानिक था। 
वैसे वह सन् 1055 में सौराष्ट्रार्न्तगत “ढाक” नामक समृद्धिशाली नगर का अधिपति था, 
पर उसकी रुचि राज्य-शासन की अपेक्षा ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन और खोज की तरफ विशेष रूप से की थी। उसने संसार की कायापलट कर देने के लिए “अमृत” ओर “पारस” की खोज करने का निश्चय किया 
और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक बड़ी प्रयोगशाला बनाकर 
जड़ी-बूटियों द्वारा पारद-सम्बन्धी परीक्षण आरम्भ किये।
साथ ही देश के विख्यात “रस वैज्ञानिकों” और साधकों को बुलाकर उनका सहयोग भी इस कार्य में प्राप्त किया। अपनी आँतरिक लगन और कठोर साधना के कारण उसे शीघ्र ही आश्चर्यजनक सफलता मिली 
और किसी घटिया धातु को सोने के रूप में बदल देना उसके लिए साधारण सी बात हो गई। 
मानवीय देह को अमर बनाने के प्रयत्न में भी वह बहुत कुछ सफल हुआ।
 उसकी इन महान् वैज्ञानिक खोजों का प्रमाण उसके बनाये “रसोद्वार तन्त्र” नामक ग्रन्थ में मिलता है,
जिसे आज भी आयुर्वेद जगत् में अद्वितीय माना जाता है। 
पर परिस्थितियों वश नागार्जुन को अपने कार्य को पूर्ण करने का अवसर नहीं मिल सका और
 दस वर्ष तक ढाँक का राज्याधिकारी रहने के बाद ही उसका अंत हो गया।

ऊपर कहा जा चुका है कि नागार्जुन ने अपनी समस्त शक्ति और समय ‘अमृत’ की खोज में लगा दिया था। इस कारण वह राज्य-कार्य की उपेक्षा करने लगा और देश में अव्यवस्था उत्पन्न होने लगी। 
यह देखकर राज्य के हितैषी मन्त्रियों ने सामूहिक रूप से उसके पास जाकर प्रार्थना की कि उसकी विज्ञान रुचि के कारण राज्य की क्षति हो रही है, प्रादेशिक सामन्त स्वेच्छाचारी बनकर कर देना बन्द कर रहे हैं,
 उपद्रवी तत्त्व बढ़ने लगे हैं और विदेशियों के आक्रमण का पूरा भय उत्पन्न हो गया है।

मन्त्रियों की बात सुनकर नागार्जुन ने कहा - “मित्रो! तुम्हारा यह कहना ठीक है कि मैं अमृत की खोज में लगा हुआ हूँ और इससे राज्य कार्य की उपेक्षा हो रही है पर जिन दो विपत्तियों का भय मृत्यु के भय को हटाने में समर्थ हो जाऊँगा। 
भगवान धन्वन्तरि की कृपा से अमर बनाने वाली समस्त औषधियाँ मिल गई हैं और अब केवल उचित मात्रा में विधिपूर्वक उनका योग करना ही शेष रह गया है। 
जो कार्य प्राचीन समय में अश्विनी कुमार लंकेश्वर रावण और आयुर्वेद के जनक चरकाचार्य से पूर्ण नहीं हो सका था, उसकी विधि मेरी समझ में आ गई है। 
भगवान ने चाहा तो संसार में शीघ्र ही ऐसे युग का आविर्भाव होगा जब कि दरिद्रता और मृत्यु के भय से लोग मुक्त हो जायेंगे और पृथ्वी पर स्वर्ग का दृश्य दिखलाई पड़ने लगेगा।”

अपने पिता की महान सफलता को देखकर युवराज बड़ा प्रभावित हुआ, 
साथ ही उसे यह भय भी हुआ कि कहीं इस कार्य की समाप्ति हो जाने पर 
नागार्जुन फिर राज्य-सत्ता को लेने का विचार न करे। 
पर उस समय वह बिना कुछ कहे-सुने अपने महलों को लौट गया।

कहते हैं कि इसके बाद राजकुमार ने जब अपने इस भय की चर्चा अपने घनिष्ठ इष्ट-मित्रों से की 
तो उनमें कुछ ने जो गुप्त रूप से नागार्जुन के विरोधी थे, उसे इस ‘भय’ से छुटकारा पाने की सलाह दी। 
उन्होंने राजकुमार को इस सम्बन्ध में बहुत भड़काया और बहकाया। 
अन्त में सबने षड्यन्त्र रचकर ऐसी योजना बनाई 
जिससे छलपूर्वक नागार्जुन अपनी प्रयोगशाला सहित विनष्ट हो गया।

इस प्रकार यद्यपि नागार्जुन का ‘अमृत’ बनाने का स्वप्न साकार न हो सका पर 
उसके प्रयत्नों ने पारद-विज्ञान और रसशास्त्र की इतनी अधिक उन्नति कर दी कि 
उसके द्वारा भारतीय चिकित्सा-शास्त्र की बड़ी प्रगति हुई।
 विभिन्न धातुओं की भस्मों द्वारा कठिन से कठिन रोग पूर्वापेक्षा अधिक शीघ्रता से दूर किये जाने लगे। 
जो लोग पारद की भस्म बनाने में सफल हुये, 
वे उसके प्रयोग से अमर नहीं तो दीर्घ-जीवन की प्राप्ति में समर्थ हो सके। 
उसने जो साधारण धातुओं को सुवर्ण में परिवर्तित करने की विधि निकाली 
उसके भी कुछ चिह्न वर्तमान समय के कीमियागरों में पाये जाते हैं।
आजकल भी कुछ विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा रासायनिक सुवर्ण बनाने के समाचार सुनने और 
पढ़ने में आते रहते हैं, चाहे उनका बनाना सुवर्ण कुछ हल्की जाति का ही क्यों न हो।

इस प्रकार नागार्जुन अपने आविष्कारों द्वारा लोक-कल्याण का एक ऐसा मार्ग खोल गया 
जिस पर चल कर ज्ञान-विज्ञान के अभ्यासी उल्लेखनीय सफलतायें प्राप्त कर सकते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘पारस’ और ‘अमृत’ अति प्राचीन काल से अत्यन्त आकर्षक विषय रहे हैं। 
भारतवर्ष ही नहीं अन्य देशों में भी अनगिनत लोग कीमियागर के पीछे पागल होकर घूमते रहे हैं। 
योरोप के कितने ही देशों में तो प्राचीन काल में कीमियागरों को प्राणदण्ड देने का नियम बना दिया गया था, क्योंकि ऐसे काम को वहाँ ‘जादू’ समझा जाता था और यह ईसाई धर्म के सिद्धान्तों के विरुद्ध था। 
पर कुछ भी हो इन्हीं कीमियागरों के उल्टे सीधे परीक्षणों के फलस्वरूप रसायन-विज्ञान की बहुत बातें मालूम हो गईं। जिनकी नींव पर ही आधुनिक रसायन-विज्ञान का भवन खड़ा किया गया है। 
उन प्राचीन कीमियागरों के लिए यह बात भी कम गौरवास्पद नहीं है कि आज उन्हीं के उत्तराधिकारी वैज्ञानिकों के प्रयत्न स्वरूप सोना बना सकना कोई असम्भव बात नहीं रह गई है। 
वैज्ञानिक लोग अपनी प्रयोगशालाओं में सीसे के छोटे कणों को सोने में परिवर्तित करने में सफल हो चुके हैं, यह बात दूसरी है कि अभी उसमें बहुत अधिक व्यय करना पड़ता है।
 पर वह दिन अधिक दूर नहीं है कि यदि विज्ञान की वर्तमान प्रगति कायम रही तो सोना संसार में एक साधारण वस्तु हो जायेगा।

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